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पार्श्व और महावीर का शासन-भेद
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भगवान् पार्श्व ने मैथुन को परिग्रह के अन्तर्गत माना था। किन्तु उनके निर्वाण के पश्चात् और भगवान् महावीर के तीर्थङ्कर होने से थोड़े पूर्व कुछ साध इस तर्क का सहारा ले अब्रह्मचर्य का समर्थन करने लगे कि भगवान् पार्श्व ने उसका निषेध नहीं किया है। भगवान् महावीर ने इस कुतर्क के निवारण के लिए स्पष्टतः ब्रह्मचर्य महाव्रत की व्यवस्था की और महाव्रत पांच हो गए।
सूत्रकृतांग में अब्रह्मचर्य का समर्थन करने वाले को ‘पार्श्वस्थ' कहा है। वृत्तिकार ने उन्हें 'स्वयूथिक' भी बतलाया है।' इसका तात्पर्य यह है कि भगवान् महावीर के पहले से ही कुछ स्वयूथिक निर्ग्रन्थ अर्थात् पार्श्व की परम्परा के श्रमण स्वच्छन्द होकर अब्रह्मचर्य का समर्थन कर रहे थे। उनका तर्क था कि "जैसे वर्ण या फोड़े को दबा कर पीव को निकाल देने से शांति मिलती है, वैसे ही समागम की प्रार्थना करने वाली स्त्री के साथ समागम करने से शान्ति मिलती है। इसमें दोष कैसे हो सकता है ?
___"जैसे भेड बिना हिलाए शान्तभाव से पानी पी लेती है, वैसे ही समागम की प्रार्थना करने वाली स्त्री के साथ शान्तभाव से किसी को पीड़ा पहुंचाए बिना समागम किया जाए, उसमें दोष कैसे हो सकता है ?
_ 'जैसे कपिजल नाम की चिड़िया आकाश में रह कर बिना हिलाए डुलाए जल पी लेती है, वैसे ही समागम की प्रार्थना करने वाली स्त्री के साथ अनासक्त-भाव से समागम किया जाए तो उसमें दोष कैसे हो सकता
भगवान् महावीर ने इन कुतर्कों को ध्यान में रखा और वक्र-जड़ मुनि किस प्रकार अर्थ का अनर्थ कर डालते हैं, इस और ध्यान दिया तो उन्हें ब्रह्मचर्य को स्वतंत्र महाव्रत का रूप देने की आवश्यकता महसूस हुई। इसीलिए स्तुतिकार ने कहा है-'से धारिया इत्थि सराइभत्तं' (सूत्रकृतांग, १।६।२८)
___ अर्थात् भगवान् ने स्त्री और रात्रिभोजन का निवारण किया। यह स्तुति-वाक्य इस तथ्य की ओर संकेत करता है कि भगवान् महावीर ने १. स्थानांग, ४।१३७ वृत्ति : मैथुनं परिग्रहेऽन्तर्भवति, नह्यपरिगृहीता योषिद्
भुज्यते। २. सूत्रकृतांग, १।३।६६,७३ः । ३. (क) सूत्रकृतांग, ११३३६६ : स्वयूथ्या वा ।
(ख) वही, १।३।६८ वृत्ति : स्वयूथ्या वा पार्श्वस्थावसग्नकुशीलादयः । ४. सूत्रकृतांग, १।३।७१,७२ ।
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