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१६. महावीर तीर्थङ्कर थे पर जैनधर्म के प्रवर्तक नहीं
भगवान् महावीर तीर्थङ्कर थे, फिर भी किसी नए धर्म के प्रवर्तक नहीं थे। उनके पीछे एक परम्परा थी और वे उसके उन्नायक थे।
महात्मा बुद्ध स्वतंत्र धर्म के प्रवर्तक थे या किसी पूर्व परम्परा के उन्नायक ? इस प्रश्न के उत्तर में बौद्ध साहित्य कोई निश्चित उत्तर नहीं देता। उपक आजीवक के यह पूछने पर कि तेरा शास्ता (गुरु) कौन है, और तू किस धर्म को मानता है, महात्मा बुद्ध ने कहा--"मैं सबको पराजित करने वाला, सबको जानने वाला हं। सभी धर्मों में निर्लेप हं। सर्वत्यागी हूं, तृष्णा के क्षय से मुक्त हूं, मैं अपने ही जान कर उपदेश करूंगा। मेरा आचार्य नहीं है, मेरे सदृश (कोई) विद्यमान नहीं । देवताओं सहित (सारे) लोक में मेरे समान पुरुष नहीं। मैं संसार में अर्हत् हूं, मैं अपूर्व उपदेशक हूं। मैं एक सम्यक् सम्बुद्ध शान्ति तथा निर्वाण को प्राप्त हूं। धर्म का चक्का घुमाने के लिए काशियों के नगर को जा रहा हूं। (वहां) अंधे हुए लोक में अमृत-दुन्दुभि बजाऊंगा। मेरे ही ऐसे आदमी जिन होते हैं.जिनके कि चित्तमल (आश्रव) नष्ट हो गए हैं। मैंने बुराइयों को जीत लिया है, इसलिए हे उपक ! मैं जिन हं।"५ ।
एक दूसरे प्रसंग में कहा गया है-भगवान् ने इन्द्रकील पर खड़े होकर सोचा... पहले बुद्धों ने कुल नगर में भिक्षाचार कैसे किया ? क्या बीच-बीच में घर छोड़ कर या एक ओर से...?' फिर एक बुद्ध को भी बीच-बीच में घर छोड़ कर भिक्षाचार करते नहीं देख, 'मेरा भी यही (बुद्धों का) वंश है, इसलिए यही कुल-धर्म ग्रहण करना चाहिए। इससे आने वाले समय में मेरे श्रावक (शिष्य) मेरा ही अनुसरण करते (हुए ) भिक्षाचार व्रत पूरा करेंगे, ऐसा (सोच) छोर के घर से भिक्षाचार आरम्भ किया।
राजा शुद्धोदन के द्वारा आपत्ति करने पर बुद्ध ने कहा
१. (क) विनयपिटक, पृ० ७२ - (ख) बुद्धचर्या, पृ० २०-२१ । २. बुद्धचर्या, पृ० ५३ ।
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