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११. कर्मवाद और लेश्या
परिस्थिति में ही गुण और दोष का आरोप वे लोग कर सकते हैं, जो आत्मा में विश्वास नहीं करते । आत्मा को मानने वाले लोग आंतरिक और बाह्य- दोनों में गुण-दोष देखते हैं और अन्तिम सचाई तो यह है कि आंतरिक विशुद्धि से ही बाहर की विशुद्धि होती है तथा आन्तरिक दोष से ही बाहर में दोष निष्पन्न होता है । अमितगति ने इसी भावभाषा में कहा है
अन्तविशुद्धितो जन्तोः, शुद्धिः सम्पद्यते बहिः । बाह्य हि कुरुते दोषं, सर्वमान्तरदोषतः ॥
बाहरी परिस्थिति से वे ही व्यक्ति प्रभावित होते हैं, जो विजातीय तत्त्वों से अधिक सम्पृक्त हैं । जिनका विजातीय तत्त्वों से सम्पर्क कम है, जिसकी चेतना अपने में ही लीन है, वे बाहर से प्रभावित नहीं होते । इसी सत्य को इस भाषा ने भी प्रस्तुत किया जा सकता है कि जो बाहरी संगों से मुक्त रहता है, उसकी चेतना अपने में लीन रहती है और उसकी चेतना दूसरे रंगों में रंग जाती है, जो बाहर में विलीन रहता है। सचाई यह है, अपने को बाह्य में विलीन करने वाला हर जीव बाह्य से प्रभावित होता है और उसकी चेतना बाहर के रंगों से रंगीन रहती है । लेश्या इस रंगीन चेतना का ही एक परिणाम है और कर्म - बन्धन उसी का अनुगमन करता है ।
कर्म : चैतन्य पर प्रभाव
जीव चेतन है और पुद्गल अचेतन । इन दोनों में सीधा सम्बन्ध नहीं है । जीव लेश्या के माध्यम से ही पुद्गलों का आत्मीकरण करता है, इसलिए जब वह शुभ प्रवृत्ति में संलग्न रहता है, तब शुभ पुद्गल आत्मीकृत होते हैं, जो पुण्य कहलाते हैं और जब वह अशुभ प्रवृत्ति में संलग्न रहता है, तब अशुभ पुद्गल आत्मीकृत होते हैं, जो पाप कहलाते हैं । जब ये पुण्य१. मूलाराधना, अमितगति, १६६७ ।
२. मूलाराधना, ७।१६१२ :
मंदा हुंति कसाया, बाहिरसंगविजढस्स सव्वस्स । frost कसायबहुलो, चेव हु सव्वंपि गंथकलि ||
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