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जैन धर्म : हिन्दुस्तान के विविध अंचलों में
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वेश्या के गर्भ से उत्पन्न 'नापित- पुत्र' कहा है- (वही, पृ० ८६० - नापितदास • राजा जातः) । परन्तु उदायि और नौ नन्दों के बीच के राजा उन्होंने छोड़ दिये । संभवतः उन्हें नगण्य समझकर नहीं लिया ।
" जैन धर्म के प्रति नन्दों के झुकाव का कारण संभवतः उसकी जाति थी । पहले नंद को छोड़कर और नंदों के विरुद्ध जैन ग्रन्थों में कुछ नहीं कहा है । नंद राजाओं के मंत्री जैन थे । उनमें पहला कल्पक था जिसे बलात् यह पद संभालना पड़ा। कहा जाता है कि इसी मंत्री की विशेष सहायता पर सम्राट् नन्द ने पूर्वकालीन क्षत्रिय वंशों का अन्त करने के लिए अपनी सैनिक विजय की योजना की । उत्तरकालीन नन्दों के मंत्री उसी के वंशज थे । नौ नंद का मंत्री शकटाल था । उसके दो पुत्र थेस्थूलभद्र और श्रीयक । पिता की मृत्यु के बाद स्थलभद्र को मंत्रि-पद दिया गया, उसने स्वीकार नहीं किया । वह दीक्षा लेकर साधु हो गया, तब वह पद उसके भाई श्रीयक को दिया गया ।
"नंदों पर जैनों के प्रभाव की अनुश्रुति को बाद के संस्कृत नाटक 'मुद्राराक्षस' में भी माना गया है। वहां चाणक्य ने एक जैन को ही अपना प्रधान गुप्तचर चुना है । नाटक की सामाजिक पृष्ठभूमि पर भी कुछ अंश में जैन - प्रभाव है ।
"खारवेल के हाथीगुंफा लेख से कलिंग पर नन्द की प्रभुता ज्ञात होती है । एक वाक्य में उसे 'नन्द राजा' कहा गया है जिसने एक प्रणाली या नहर बनाई थी, जो ३०० वर्ष ( या १०३ ? ) वर्षों तक काम में न आई । तब अपने राज्य के पांचवें वर्ष में खारवेल उसे अपने नगर में लाया। दूसरे वाक्य में कहा गया है कि नन्द राजा प्रथम 'जिन' (ऋषभ ) की मूर्ति ( या पादुका), जो कलिंग राजाओं के यहां वंश-परम्परा से चली आ रही थी, विजय के चिह्न रूप मगध उठा ले गया । '
नन्द - वंश की समाप्ति हुई और मगध की साम्राज्यश्री मौर्य वंश के हाथ में आई । उसका पहला सम्राट् चन्द्रगुप्त था । उसने उत्तर भारत में जैन धर्म का बहुत विस्तार किया । पूर्व और पश्चिम भी उससे काफी प्रभावित हुए । सम्राट् चन्द्रगुप्त अपने अंतिम जीवन में मुनि बने और श्रुतकेवली भद्रबाहु के साथ दक्षिण में गए थे । चन्द्रगुप्त के पुत्र बिन्दुसार, उनके पुत्र अशोकश्री ( सम्राट् अशोक ) हुए। ऐसा माना जाता है कि वे प्रारम्भ में जैन थे, अपने परम्परागत धर्म के अनुयायी थे और बाद में
१. हिन्दू सभ्यता, पृ० २६४-२६५ ।
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