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संस्कृति के दो प्रवाह श्रुतकेवली शय्यंभव ने दशवकालिक की रचना वहीं की थी।' राजस्थान
भगवान् महावीर के निर्वाण के पश्चात् मरुस्थल (वर्तमान राजस्थान) में जैन धर्म का प्रभाव बढ़ गया था । पण्डित गौरीशंकर ओझा को अजमेर के पास वडली ग्राम में एक बहुत प्राचीन शिलालेख मिला था। वह वीर निर्वाण सम्वत् ८४ (ई० पू० ४४३) में लिखा हुआ था-वीराय भगवत चत्तुरसीति वसे, मामामिके.. __आचार्य रत्नप्रभसूरि वीर निर्वाण की पहली शताब्दी में उपकेश या ओसिया में आए थे। उन्होंने वहां ओसिया के सवालाख नागरिकों को जैन धर्म में दीक्षित किया और उन्हें एक जन-जाति (ओसवाल) के रूप में परिवर्तित कर दिया। यह घटना वीर निर्वाण के ७० वर्ष बाद के आसपास की है।
पूर्व मध्ययुग में राजपूताना के विस्तृत क्षेत्र में भी जैन-मत का पर्याप्त प्रचार था, जिसका परिज्ञान अनेक प्रशस्तियों के अध्ययन से हो जाता है। चहमान लेख में राजा को जैन-धर्म-परायण कहा गया है तथा तीर्थङ्कर शान्तिनाथ की पूजा निमित्त आठ द्रम (सिक्के) के दान का वर्णन है । तैलप नामक राजा के पितामह द्वारा जैन मन्दिर के निर्माण का भी वर्णन मिलता है
पितामहेन तस्येव शमीयादयां जिनालये।
कारितं शांतिनाथस्य बिम्बं जनमनोहरम् ॥ ... विझोली शिलालेख (ए० इ० २६, पृ० ८६) का आरम्भ 'ओम नमो वीतरागाय' से किया गया है, जिसके पश्चात पार्श्वनाथ की प्रार्थना मिलती है । जालोर के लेख में पार्श्वनाथ के 'ध्वज उत्सव' के लिए दान का वर्णन है-श्री पार्श्वनाथदेवे तोरणादीनां प्रतिष्ठाकार्ये कृते। ध्वजारोपणप्रतिष्ठायां कृतायां (ए० इ० ११, पृ० ५५)
मारवाड़ के शासक राजदेव के अभिलेख में महावीर मंदिर तथा विहार के निवासी जैन साधु के लिए दान देने का विवरण मिलता है-श्री महावीर चैत्ये साधुतपोधननिष्ठार्थे ।
लेखों के आधार पर कहा गया है कि राजपूताना में महावीर, पार्श्व१. दशवकालिक, हारिभद्रीयवृत्ति, पत्र ११ । २. जर्नल ऑफ दी बिहार एण्ड ओरिस्सा रिसर्च सोसाइटी, ई० स० १९३० ३. पट्टावलि समुच्चय, पृ० १८५-१८६ ।
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