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१२. महावीरकालीन मतवाद
भगवान् महावीर का युग धार्मिक मतवादों की जटिलता का युग था । बौद्ध साहित्य में ६२ धर्म - मतवादों का विवरण मिलता है ।' सामञ्ञफलसुत्त में छह तीर्थङ्करों का उल्लेख है । उनमें पांचवें तीर्थङ्कर निग्गंठ नातपुत्त अर्थात् भगवान् महावीर हैं। उनके मत का चातुर्याम संवर के रूप में उल्लेख किया गया है। अजातशत्रु भगवान् बुद्ध से कहता है
'भन्ते ! एक दिन मैं जहां निग्गंठ नाथपुत्त थे, वहां गया । जाकर निग्गंठ नाथपुत्त के साथ मैंने संमोदन किया : - 'क्या भन्ते ! श्रामण्य के पालन करने का फल इसी जन्म में प्रत्यक्ष बतलाया जा सकता है ?' ऐसा कहने पर भन्ते ! निग्गंठ नाथपुत्त ने यह उत्तर दिया- 'महाराज ! निग्गंठ चार ( प्रकार के ) संवरों से संवृत रहता है'
( १ ) निग्गंठ ( = निर्ग्रन्थ) जल के व्यवहार का वारण करता है ( जिसमें जल के जीव न मारे जावें),
(२) सभी पापों का वारण करता है,
(३) सभी पापों के वारण करने से धूतपाप - पापरहित होता है, (४) सभी पापों के वारण करने में लगा रहता है । महाराज ! निग्गंठ इस प्रकार चार संवरों से संवृत रहता है । क्योंकि निग्गंठ इन चार प्रकार के संवरों से संवृत रहता है, इसीलिए वह निर्ग्रन्थ गतात्मा ( = अनिच्छुक ), यतात्मा ( = संयमी ) और स्थितात्मा कहलाता है ।"
'निग्गंथ नाथपुत्त ने चार
भन्ते ! प्रत्यक्ष श्रामण्य फल के पूछे " संवरों का वर्णन किया ।"
यह संवाद वास्तविकता से दूर है । भगवान् महावीर चातुर्याम-संवर के प्रतिपादक नहीं थे । पार्श्वनाथ के चातुर्याम धर्म को भ्रमवश निर्ग्रन्थ ज्ञातपुत्र का चातुर्याम-संवर कहा गया है । लगता है कि संगीति में सम्मिलित बौद्ध भिक्षु भगवान् पार्श्व के चातुर्याम धर्म से परिचित थे, किन्तु चार यामों को यथार्थ जानकारी उन्हें नहीं थी । सामञ्ञफलसुत्त में उल्लिखित चार ३. वही, ११२, पृ० ५० ।
१. दीघनिकाय, १1१, पृ० ५-१५ । २. बही, १२, पृ० २१ ।
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