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संस्कृति के दो प्रवाह सुखकर और शुक्ल वर्ण अधिक सुखकर होता है।"
कृष्ण वर्ण की नीच गति होती है । वह नरक में ले जाने वाले कर्मों में आसक्त रहता है। नरक से निकलने वाले जीव का वर्ण धम्र होता है, यह पशु-पक्षी जाति का रंग है। नील वर्ण मनुष्य जाति का रंग है । रक्त वर्ण अनुग्रह करने वाले देववर्ग का रंग है। हारिद्र वर्ण विशिष्ट देवताओं का रंग है । शुक्ल वर्ण सिद्ध शरीरधारी साधकों का रंग है।'
महाभारत में एक स्थान पर लिखा है-'दुष्कर्म करने वाला मनुष्य वर्ण से परिभ्रष्ट हो जाता है । पुण्य-कर्म से वह वर्ण के उत्कर्ष को प्राप्त होता है।"
'लेश्या, और महाभारत के 'वर्ण-निरूपण' में बहत साम्य है, फिर भी वह महाभारत से गृहीत है, ऐसा मानने के लिए कोई हेतु प्राप्त नहीं है । रंग के प्रभाव की व्याख्या लगभग सभी दर्शन-ग्रंथों में मिलती है। जैन आचार्यों ने उसे सर्वाधिक विकसित किया, इस सम्बन्ध में कोई भी मनीषी दो मत नहीं हो सकता। इस विकास को देखते हुए सहज ही यह कल्पना हो जाती है कि जैन आचार्य इसका प्रतिपादन बहुत पहले से ही करते आए हैं। इसके लिए वे उन दूसरी परम्पराओं के ऋणी नहीं हैं, जिन्होंने इसका प्रतिपादन केवल प्रासंगिक रूप में ही किया है।
गीता में गति के कृष्ण और शुक्ल-ये दो वर्ग किए गए हैं । कृष्णगति वाला बार-बार जन्म-मरण करता है। शुक्लगति वाला जन्म-मरण से मुक्त हो जाता है।
धम्मपद में धर्म के दो भाग किए हैं। वहां लिखा है-'पण्डित मनुष्य को कृष्ण धर्म को छोड़ शुक्ल धर्म का आचरण करना चाहिये।५।।
पतञ्जलि ने कर्म की चार जातियां बतलाई थीं-(१) कृष्ण, (२) शुक्ल-कृष्ण, (३) शुक्ल और (४) अशुक्ल-अकृष्ण । ये क्रमशः
१. महाभारत, शान्तिपर्व, २८०१३३ :
षड् जीववर्णाः परमं प्रमाणं, कृष्णो धूम्रो नीलमथास्य मध्यम् ।
रक्तं पुनः सह्यतरं सुखं तु, हारिद्रवर्णं सुसुखं च शुक्लम् ।। २. वही, २८०।३४-४७ ।
३. वही, २६११४-५ । ४. गीता, ८।२६ :
शुक्लकृष्णे गती ह्यते, जगतः शाश्वते मते । एकया यात्यनावृत्ति-मन्ययाऽवर्तते पुनः ।। ५. धम्मपद, पंडितवग्ग, श्लोक १६ ।
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