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संस्कृति के दो प्रवाह अनित्यवादी दृष्टिकोण आत्मवादियों के लिए धर्म-प्रेरक रहा तो परलोक में विश्वास नहीं करने वाले अनात्मवादी इससे भोग की प्रेरणा पाते रहे हैं। संसार भावना
धर्म की धारणा का आठवां हेतु रहा है-संसार भावना। भगुपुत्रों ने अपने पिता से कहा—'यह लोक पीड़ित हो रहा है, चारों ओर से घिरा हुआ है, अमोघा आ रही है । इस स्थिति में हमें सुख नहीं मिल रहा है।
'पुत्रों ! यह लोक किससे पीड़ित है ? किससे घिरा हुआ है ? अमोघा किसे कहा जाता है ? मैं जानने के लिए चिंतित हूं।'
कुमार बोले-'पिता! आप जानें कि यह लोक मृत्यु से पीड़ित है, जरा से घिरा हुआ है और रात्रि को अमोघा कहा जाता है ।
मृगापुत्र ने भी संसार को इसी दृष्टि से देखा था-'जैसे घर में आग लग जाने पर उस घर का जो स्वामी होता है, वह मूल्यवान् वस्तुओं को उससे निकालता है और मूल्य-हीन वस्तुओं को वहीं छोड़ देता है, उसी प्रकार यह लोक जरा और मृत्यु से प्रज्वलित हो रहा है । मैं आपकी आज्ञा पाकर उसमें से अपने आपको निकाल लूंगा।"
यह संसार-चक्र अविरल गति से अनन्त काल तक चलता रहता है ।' आत्मवादी इस परिभ्रमण को अपनी स्वतंत्रता के प्रतिकल मानता है। उसका अन्त पाने के लिए वह धर्म की शरण में आता है। कुमारश्रमण केशी ने इसी आशय से प्रश्न किया था
___ 'मुने ! महान् जल-प्रवाह के वेग से बहते हुए जीवों के लिए तुम शरण, गति, प्रतिष्ठा और द्वीप किसे मानते हो?'
गौतम बोले-'जल के मध्य में एक लम्बा-चौड़ा महाद्वीप है। वहां महान् जल-प्रवाह की गति नहीं है।'
'द्वीप किसे कहा गया है'-केशी ने गौतम से कहा। गौतम बोले'जरा और मृत्यु के वेग से बहते हुए प्राणियों के लिए धर्म ही द्वीप, प्रतिष्ठा, गति और उत्तम शरण है। १. उत्तराध्ययन, ५॥५-६ । २. वही, १४।२१-२३ । ३. वही, २६।२२,२३ । ४. वही, १०१५-१५।। ५. वही, २३३६५-६८ ।
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