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धर्म - श्रद्धा और बाह्यसंग - त्याग
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उक्त अभिमत यथार्थ है । उसके आधार पर हमें चेतना को अलिप्त रखने की आवश्यकता है, बाह्य विषयों से बचने की कोई मुख्य बात नहीं । किन्तु हमें यह भी नहीं भूलना चाहिए कि चेतना अंतर्जागरण की परिपक्व दशा में ही अलिप्त रह सकती है ।
निमित्त उपादान होने पर ही कार्य कर सकता है, अन्यथा नहीं । विकार का उपादान है—- राग । वह अव्यक्त रहता है, किन्तु निमित्त मिलने पर व्यक्त हो जाता है । इसलिए जब तक राग क्षीण नहीं होता, तब तक निमित्तों - बाह्य विषयों से बचाव करना आवश्यक होता है । बचाव की मात्रा सब व्यक्तियों के लिए समान भले न हो, पर उसका अपवाद हर कोई व्यक्ति नहीं हो सकता । इसीलिए ये मर्यादाएं स्थापित की गईं—
" मित आहार करो।"
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'रसों का प्रचुर मात्रा में सेवन मत करो ।'
'रसों का प्रकाम ( अधिक मात्रा में ) सेवन नहीं करना चाहिए। वे प्रायः मनुष्य की धातुओं को उद्दीप्त करते हैं । जिसकी धातुएं उद्दीप्त होती हैं उसे काम - भोग सताते हैं, जैसे स्वादिष्ट फल वाले वृक्ष को पक्षी ।
' जैसे पवन के झोंकों के साथ प्रचुर ईंधन वाले वन में लगा हुआ दावानल उपशान्त नहीं होता, उसी प्रकार प्रकाम-भोजी ( ठूस ठूस कर खाने वाले) की इंद्रियाग्नि ( कामाग्नि) शांत नहीं होती। इसलिए प्रकाम भोजन किसी भी ब्रह्मचारी के लिए हितकर नहीं होता ।"
" एकांत में रहो ।"
'स्त्री संसर्ग से बचो ।'
'जैसे बिल्ली की बस्ती के पास चूहों का रहना अच्छा नहीं होता, उसी प्रकार स्त्रियों की बस्ती के पास ब्रह्मचारी का रहना अच्छा नहीं होता ।
'तपस्वी श्रमण स्त्रियों के रूप, लावण्य, विलास, हास्य, मधुर आलाप और चितवन को चित्त में रमाकर उन्हें देखने का संकल्प न करे ।
'जो सदा ब्रह्मचर्य में रत हैं उनके लिए स्त्रियों को न देखना, न चाहना, न चिन्तन करना और न वर्णन करना हितकर है, और वह धर्म - ध्यान के लिए उपयुक्त है ।
१. उत्तराध्ययन ३२|४ | २. वही, ३२।१०,११ । ३. वही, ३२०४ |
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