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१०. तत्त्वविद्या
तत्वविद्या हमारे ज्ञान-वृक्ष की वह शाखा है, जिसके द्वारा विश्व के अस्तित्व - नास्तित्व की व्याख्या की जाती है । इसके माध्यम से लगभग सभी दार्शनिकों ने दो मुख्य प्रश्नों पर गम्भीर चिन्तन प्रस्तुत किया। पहला प्रश्न यह रहा कि विश्व सत्य है या मिथ्या ? दूसरा प्रश्न था कि द्रव्य के अस्तित्व का स्रोत एक ही केन्द्र से प्रवाहित हो रहा है या उसके केन्द्र भिन्न-भिन्न हैं ?
उपनिषद् और सृष्टि
उपनिषदों के ऋषि इस निष्कर्ष पर पहुंचे कि विश्व सत्य है । उसके अस्तित्व का स्रोत एक ही केन्द्र है । वह ब्रह्म है । उन्होंने यह स्वीकार किया कि जो कुछ है, वह सब ब्रह्म है।' वह एक है, अद्वितीय है । जो नानात्व को देखता है-दो को स्वीकार करता है, वह बार-बार मृत्यु को प्राप्त होता है । ऐतरेय उपनिषद् में बताया गया है कि सृष्टि से पूर्व एकमात्र आत्मा ही था । दूसरा कोई तत्त्व नहीं था । उसने सोचा, लोकों की रचना करूं । इस चिन्तन के साथ उसने लोकों की रचना की । छान्दोग्य उपनिषद् के अनुसार असत् से सत् की उत्पत्ति नहीं हो सकती । आरम्भ में एक मात्र सत् ही था । उसने इच्छा की कि मैं बहुत होऊं । इस इच्छा के साथ वह अनेक रूपों में व्यक्त हो गया । "
वस्तुतः सत् एक ही है । वही ब्रह्म या आत्मा है । जितना नानात्व है, वह उसी का प्रपंच है ।
औपनिषदिक दृष्टि का फलित अर्थ यह है कि विश्व का मूल हेतु
१. ( क ) छान्दोग्योपनिषद्, ३|१४|१ | सर्व खल्विदं ब्रह्म ।
(ख) मुण्डकोपनिषद्, २।२।११ : ब्रह्मैवेदं सर्वम् ।
२. छान्दोग्योपनिषद्, ६।२१२ : एकमेवाद्वितीयम् ।
३. बृहदारण्यकोपनिषद्, ४|४|११ ; कठोपनिषद् २।१।१० : मृत्योः स मृत्युमाप्नोति य इह नानैव पश्यति ।
४. ऐतरेयोपनिषद्, १११।१ २ ।
५. छान्दोग्योपनिषद्, ६।२।२-३ ॥
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