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संस्कृति के दो प्रवाह
मार्ग का अवलम्बन लेना चाहिए - दोष-निवृत्ति के लिए उपवास आदि करने चाहिए और प्राण-संधारण के लिए आहार भी । कायक्लेश उसी सीमा तक सम्मत है जब तक कि मानसिक संक्लेश उत्पन्न न हो । संक्लेश से मन का असमाधान होता है और असमाधान की स्थिति में मुनि धर्म से च्युत हो जाता है । अतः संयम यात्रा के निर्वाह में विघ्न उपस्थित न हो, वैसे उपस्थित होना चाहिए।"
यह मध्यम-मार्ग की मान्यता जिनसेन से बहुत पहले ही स्थिर हो चुकी थी । अनेकान्तदृष्टि के साथ-साथ ही इसका उदय हुआ था । उत्तराध्ययन में उसके अनेक बीज प्राप्त हैं । आहार और अनशन - दोनों at ऐकान्तिक विधान नहीं है ।
छह कारणों से आहार करने की अनुमति दी गई है
(४) संयम,
(१) वेदना, (२) वैयावृत्त्य, (३) ईर्या,
(५) प्राणधारण और (६) धर्मचिन्ता ।'
छह कारणों से अनशन करने की अनुमति दी गई है—
(४) प्राणिदया,
(१) आतंक, (२) उपसर्ग, (३) ब्रह्मचर्यधारण,
(५) तपस्या और
( ६ ) शरीर - विच्छेद । इसी प्रकार सरस भोजन का भी ऐकान्तिक विधि-निषेध नहीं है । जो दूध, दही आदि सरस आहार करे उसे भी तपस्या करनी चाहिएआहार और तपस्या का संतुलित क्रम चलाना चाहिए । जो ऐसा नहीं करता, वह पापश्रमण होता है ।"
आमरण अनशन के लिए भी अनेकान्त व्यवस्था है । जब तक ज्ञान, दर्शन, चारित्र आदि गुणों का नित नया विकास होता रहे तब तक जीवन को धारण किया जाये, आहार आदि से शरीर को चलाया जाये । जब ज्ञान, दर्शन आदि का लाभ प्राप्त करने की क्षमता न रहे, उस स्थिति में देह का त्याग किया जाए -- आहार का प्रत्याख्यान किया जाए ।"
१. महापुराण, २०११-१० ।
२. उत्तराध्ययन, २६।३२, ३३ ।
३. वही, २६।३३-३४ ।
४. वही, १७।१५ ।
५. वही, ४।७ : लाभान्तरे जीविय बूहइत्ता, पच्छापरिम्नाय मलावधंसी ।
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