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८. धर्म श्रद्धा और बाह्यसंग-त्याग
धर्म की धारणा के आठ हेतुओं का उल्लेख किया जा चुका है । उनके अनुप्रेक्षण से धर्म के प्रति श्रद्धा होती है । जिसे धर्म के प्रति श्रद्धा होती है, वह पौद्गलिक सुखों से विरक्त हो जाता है । विरक्ति की दो भूमिकाएं हैं- (१) अगार-धर्म और ( २ ) अनगार-धर्म । प्रारम्भ में सभी लोग गृहस्थ होते हैं । अनगार जन्मना नहीं होता । धर्म की श्रद्धा और वैराग्य का उत्कर्ष होने पर गृहस्थ ही गृहवास को छोड़ कर अनगार बनता है ।' भोग और विराग - ये जीवन के दो छोर हैं । जिनमें राग होता है, वे भोग चाहते हैं । जिनका मन विरक्त हो जाता है, वे भोग का त्याग कर देते हैं । ये दोनों भावनाएं हर युग मानस को व्याप्त करती रही हैं । ब्रह्मदत्त ने चित्त से कहा था- - 'हे भिक्षु ! तू नाट्य, गीत और वाद्यों के साथ नारी-जनों को परिवृत करता हुआ इन भोगों को भोग । यह मुझे रुचता है । प्रव्रज्या वास्तव में ही कष्टकर है ।
धर्म में स्थित और उस (राजा) का हित चाहने वाले चित्त मुनि ने पूर्वभव के स्नेह -वश अपने प्रति अनुराग रखने वाले काम- गुणों में आसक्त राजा से यह वाक्य कहा - 'सब गीत विलाप हैं । सब नृत्य विडम्बना हैं । सब आभरण भार हैं और सब काम भोग दुःखकर हैं ।"
मृगापुत्र को भी माता-पिता ने यही समझाने का यत्न किया था'पुत्र ! तू मनुष्य सम्बन्धी पांच इन्द्रियों के भोगों का भोग कर । फिर भुक्तभोगी होकर मुनि-धर्म का आचरण कर ।"
सम्राट् श्रेणिक ने अनाथी मुनि को देख कर विस्मय के साथ कहा - 'आर्यं ! तरुण हो, इस भोग- काल में ही प्रव्रजित हो गए । चलो, मैं तुम्हारा नाथ बनता हूं। तुम भोग भोगो, यह मनुष्य जीवन कितना दुर्लभ है ।"
१. उत्तराध्ययन, २६।३ ।
२. वही, १३१४- १६ ।
३. वही, १९।४३ |
४. वही, २०१८ - ११ ।
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