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संस्कृति के दो प्रवाह
प्रणेता मानते हैं । ' इस दृष्टि से भगवान् ऋषभ 'आदिनाथ' 'हिरण्यगर्भ' और 'ब्रह्मा' – इन नामों से अभिहित हुए हैं ।
ऋग्वेद के अनुसार हिरण्यगर्भ भूत-जगत् का एकमात्र पति है । ' किन्तु उससे यह स्पष्ट नहीं होता कि वह 'परमात्मा' है या 'देहधारी' ? शंकराचार्य ने बृहदारण्यकोपनिषद् में ऐसी ही विप्रतिपत्ति उपस्थित की है - किन्हीं विद्वानों का कहना है कि परमात्मा ही हिरण्यगर्भ है और कई विद्वान् कहते हैं कि वह संसारी है ।" यह संदेह हिरण्यगर्भ के मूल स्वरूप की जानकारी के अभाव में प्रचलित था । भाष्यकार सायण के अनुसार हिरण्यगर्भ देहधारी है ।" आत्मविद्या, संन्यास आदि के प्रथम प्रवर्तक होने के कारण इस प्रकरण में हिरण्यगर्भ का अर्थ 'ऋषभ' ही होना चाहिए । हिरण्यगर्भ उनका एक नाम भी रहा है । ऋषभ जब गर्भ में थे, तब कुबेर ने हिरण्य की वृष्टि की थी, इसलिए उन्हें 'हिरण्यगर्भ' भी कहा गया । "
कर्मविद्या और आत्मविद्या
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कर्मविद्या और आत्मविद्या- ये दो धाराएं प्रारम्भ से ही विभक्त रही हैं । मरीचि, अंगिरा, अत्रि, पुलस्त्य, पुलह, ऋतु और वशिष्ठ - सात ऋषि ब्रह्मा के मानस पुत्र हैं । ये प्रधान वेदवेत्ता और प्रवृत्ति-धर्मावलम्बी हैं । इन्हें ब्रह्मा द्वारा प्रजापति के पद पर प्रतिष्ठित किया गया । यह कर्मपरायण पुरुषों के लिए शाश्वत मार्ग प्रकट हुआ । '
१. ज्ञानार्णव, १२ : योगिकल्पतरुं नौमि देवदेवं वृषध्वजम् । २. ऋग्वेद १०।१०।१२१।१ :
हिरण्यगर्भः ? समवर्तताग्रे भूतस्य जातः पतिरेक आसीत् । स सदाधार पृथिवीं द्यामुतेमां कस्मै देवाय हविषा विधेम ॥ ३. बृहदारण्यकोपनिषद्, १।४।६, भाष्य पृ० १८५ :
अत्र विप्रतिपद्यन्ते --- पर एव हिरण्यगर्भ इत्येके । संसारीत्यपरे । ४. तैत्तिरीयारण्यक, प्रपाठक १०, अनुवाक् ६२, सायण भाष्य । ५. महापुराण, १२।६५ : संषा हिरण्यमयी वृष्टिः धनेशेन निपातिता विभोहिरण्यगर्भत्वमिव बोधयितुं जगत् ६. महाभारत, शान्तिपर्व, ३४० ६६-७१ : मरीचिरङ्गिराश्चात्रि:, पुलस्त्यः पुलहः क्रतुः । वसिष्ठ इति सप्तैते, मानसा निर्मिता हि ते ।। एते वेदविदो मुख्या, वेदाचार्याश्च कल्पिताः । प्रवृत्तिधर्मिणश्चैव प्राजापत्ये प्रतिष्ठिता ॥ अयं क्रियावतां पन्था, व्यक्तीभूतः सनातनः । अनिरुद्ध इति प्रोक्तो, लोकसर्गकरः प्रभुः ॥
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