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संस्कृति के दो प्रवाह
२. स्नान ..
- निर्ग्रन्थ-श्रमण स्नान को आत्म-शुद्धि का साधन नहीं मानते। बौद्धश्रमणों का अभिमत भी यही रहा है।
उस समय सुन्दरिक भारद्वाज ब्राह्मण ने भगवान् से यह कहा'क्या आप गौतम ! स्नान के लिए बाहुका नदी चलेंगे ?'
'ब्राह्मण ! बाहुका नदी से क्या (लेना) है ? बाहुका नदी क्या करेगी ?'
'हे गौतम ! बाहुका नदी लोकमान्य ( --लोक सम्मत) है, बाहुका नदी बहुत जनों द्वारा पवित्र (पुण्य) मानी जाती है। बहुत से लोग बाहुका नदी में (अपने) किए पापों को बहाते हैं।'
तब भगवान् ने सुन्दरिक भारद्वाज ब्राह्मण को गाथाओं में कहा
"बाहुका, अविकक्क, गया और सुन्दरिका में, सरस्वती और प्रयाग तथा बाहुमती नदी में, काले कर्मों वाला मूढ़ चाहे नित्य नहाए, (किन्तु) शुद्ध नहीं होगा । क्या करेगी सुन्दरिका क्या प्रयाग और क्या बाहुलिका नदी?
(वह) पापकर्मी कृतकिल्विष दुष्ट नर को नहीं शुद्ध कर सकते। शुद्ध (नर) के लिए सदा ही फल्गू है, शुद्ध के लिए सदा ही उपोसथ है। शुद्ध और शुचिकर्मा के व्रत सदा ही पूरे होते रहते हैं।
'ब्राह्मण ! यहीं नहा, सारे प्राणियों का क्षेम कर । यदि तू झूठ नहीं बोलता, यदि प्राण नहीं मारता, यदि बिना दिया नहीं लेता, (और) श्रद्धावान् मत्सर-रहित है (तो) गया जाकर क्या करेगा, क्षुद्र जलाशय (उदपान) भी तेरे लिए गया है।'' धर्मकीर्ति का प्रसिद्ध श्लोक है
वेदप्रामाण्यं कस्यचित् कर्तवादः, स्नाने धर्मेच्छा जातिवावावलेपः ।
संतापारम्भः पापहानाय चेति, स्वस्तप्रज्ञानां पंचलिंगामि जाइये । निर्ग्रन्थ हरिकेशबल ने ब्राह्मणों से कहा-'जल से आत्म-शुद्धि नही होती। तब उनके मन में जिज्ञासा गत्पन्न हुई और उन्होंने हरिकेशबल से पूछा-'आपका नद (जलाशय) कौन सा है ? आपका शान्ति-ती कौन सा है ? आप कहां नहा कर कर्म-रज धोते हैं ? हे यक्षपूजित संयते ! हम आपसे जानना चाहते हैं, आप बताइए।" उस समय निर्ग्रन्थ हरि १. मज्झिमनिकाय, ११११७ पृ० २६ । ३. वही, १२।४५ । २. उत्तराध्ययन, १२।३८ ।
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