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संस्कृति के दो प्रवाह
रहने पर भी जन्म, बुढ़ापा, मृत्यु, शोक, रोना-पीटना, पीड़ित होना, चिन्तित होना, परेशान होना तो (हर हालत में) है ही और मैं इसी जन्म में-जीते जी-इन्हीं सबके नाश का उपदेश देता हूं।'
भगवान् महावीर आत्मा और परलोक, पूर्वजन्म और पुनर्जन्म के प्रबल समर्थक थे। उनका युग आत्म-विद्या की जिज्ञासाओं का युग था। उस समय 'आत्मा है या नही ?' 'परलोक है या नहीं' ?, 'जिन या तथागत होंगे या नहीं ?-ऐसे प्रश्न पूछे जाते थे। कुछ अल्पमति श्रमण इन प्रश्नों के जाल में उलझ भी जाते थे। इसीलिए भगवान महावीर ने उस मानसिक उलझन को 'दर्शन परीषह' कहा। उन्होंने बताया-'निश्चय ही परलोक नहीं है, तपस्वी की ऋद्धि भी नहीं है अथवा मैं ठगा गया हूं'-भिक्षु ऐसा चिन्तन न करे। 'जिन हुए थे, जिन हैं और जिन होंगे-ऐसा जो कहते हैं, वे झूठ बोलते हैं'-भिक्षु ऐसा चिन्तन न करे ।'
उत्तराध्ययन में 'परलोक' शब्द का पांच बार (५/११; १६/६२; २२/१६; २६/५०; ३४/६०) तथा 'पूर्व-जन्म की स्मृति (... जातिस्मृति)' का तीन बार (६/१,२; १४/५; १६/७,८) उल्लेख हुआ है। प्रकारान्तर से ये विषय बहुत बार चचित हुए हैं। ५. स्वर्ग और नरक
स्वर्ग और नरक की चर्चा वैदिक साहित्य में भी रही है। ए० ए० मैकडोनल ने लिखा है--
'यद्यपि परलोक-जीवन के सर्वाधिक स्पष्ट और प्रमुख सन्दर्भ ऋग्वेद के नवम और दशम मण्डल में मिलते हैं तथापि कभी-कभी इसका प्रथम में भी उल्लेख है। जो कठिन तपस्या (तपस्) करते हैं, जो युद्ध में अपने जीवन का मोह त्याग देते हैं (१०, १५४.५ अथवा इनसे भी अधिक, जो प्रचुर दक्षिणा देते हैं, (वही,३; १,१२५५; १०.१०७१) उन्हें ही पुरस्कार स्वरूप मार्ग प्राप्त होता है। अथर्ववेद इस अन्तिम प्रकार के लोगों को प्राप्त होने वाले पुण्य-फलों के विवरण से भरा है।
'स्वर्ग में पहुंच कर मृत व्यक्ति ऐसा सुखकर जीवन व्यतीत करते हैं (१०,१४'. १५". १६.५), जिसमें सभी कामनाएं तृप्त रहती हैं (९.११३.११), और जो देवों के बीच (१०-१४") प्रमुखतः यम और वरुण, इन दो राजाओं की उपस्थिति में व्यतीत होता है (१०.१४) । १. संयुक्तनिकाय, २११५; बुद्धवचन, पृ० २२-२३ । २. उत्तराध्ययन, २०४४-४५ ।
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