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श्रमण और वैदिक परम्परा की पृष्ठभूमि वृत्तिकार ने लिखा है-राजा या अन्य कोई ईश्वर व्यक्ति कूप, तडाग, दानशाला आदि कराना चाहे और मुमुक्षु से पूछे-इस कार्य में मुझे पुण्य होगा या नहीं, तब मुमुक्षु मुनि मौन रखे, किन्तु 'पुण्य होगा या नहीं होगा' ऐसा न कहे । उपयुक्त समझे तो उतना-सा कहे कि यह मेरे अधिकार से परे की बात है।'
___ 'राजा या अन्य कोई ईश्वर कृप, तडाग, दानशाला आदि बनाना चाहे'-शीलांकसूरि का यह प्रतिपादन, 'वापी, कूप, तडाग आदि निर्माण को राजा, अमात्य आदि प्रभु-वर्ग उत्तम मोक्ष-हेतु मानता है"-आचार्य सायण के इस उल्लेख से बहुत सम्बन्धित है। यह धर्म भी निर्ग्रन्थों को परम मोक्ष-साधन के रूप में मान्य नहीं रहा, इसीलिए भगुपुत्रों ने कहा था कि धन और धर्म का कोई सम्बन्ध नहीं है-'धणेण किं धम्मधुराहिगारे ?'३
(१) सत्य, (२) तप, (३) दम, (४) शम और (५) मानसउपासना-ये पांचों साधन श्रमण-परम्परा में स्वीकृत हैं, किन्तु सब श्रमणसंघों में समानरूप से स्वीकृत हैं, यह नहीं कहा जा सकता। निर्ग्रन्थ श्रमण सत्य को मोक्ष का साधन मानते हैं, किन्तु सत्य ही परम मोक्ष-साधन है, ऐसा ऐकान्तिक पक्ष उन्हें मान्य नहीं है।
तप को भी वे मोक्ष का साधन मानते हैं. किन्तु अनशन से उत्कृष्ट तप नहीं है या तप ही परम मोक्ष-साधन है, ऐसा वे नहीं मानते। उनके अभिमत में तप के १२ प्रकार हैं। अनशन बाह्य-तप है, ध्यान अन्तरंग-तप है । वह अनशन से उत्कृष्ट है।
इसी प्रकार दम, शम और मानस-उपासना भी ऐकान्तिक रूप से मान्य नहीं है, किन्तु वे समुदित रूप से मान्य हैं। इनका विशद विवेचन 'साधना-पद्धति' शीर्षक में देखें। १. सूत्रकृतांग, १।११।२०-२१ वृत्ति : अस्ति नास्ति वा पुण्यमित्येवं 'ते' मुमुक्षवः साधवः पुनर्न भाषन्ते । किन्तु पृष्टः सद्भिर्मानमेव समाश्रयणीयम् । एवं विधविषये मुमुक्षूणामधिकार एव नास्ति । २. तैत्तिरीयारण्यक, १०॥६२, सायण भाष्य, पृ० ७६५ :
स्मृतिपुराणप्रतिपाद्यो वापीकू पतडागाति निर्माण रूपोत्र धर्मो विवक्षितः । स एवोत्तमो मोक्षहेतुरिदि राजामात्यादयः प्रभवो मन्यन्ते । ३. उत्तराध्ययन, १४।१७ । ४. तैत्तिरीयारण्यक, १०।६२, पृ० ७६५ : तपो नानशनात् परम् ।
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