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श्रमण और वैदिक परम्परा की पृष्ठभूमि यज्ञ को परम मानते हैं । सगुण ब्रह्मवादी मानसिक उपासना को परम मानते हैं। संन्यास हिरण्यगर्भ ब्रह्मा के द्वारा परम रूप में अभिमत है। भाष्यकार ने आगे लिखा है कि ब्रह्मा पूवोक्त मतानुयायी लोगों की तरह जीव नहीं है। यद्यपि हिरण्यगर्भ देहधारी है, फिर भी वह परमात्मा, ब्रह्म कहलाएगा। क्योंकि परमात्मा का शिष्य होने के कारण वह उसी के समान ज्ञानी है।
ये सब साधन वैदिक नहीं हैं, किन्तु यह आरण्यक-काल में प्रचलित साधनों का संग्रह है।
___ इन बारह साधनों में आठवां,नौवां और दसवां भाष्यकर के अनुसार निश्चित ही बैदिक है । छट्ठा लौकिक है, पांचवां और सातवां लौकिक भी है और बैदिक भी। पहला,दूसरा,तीसरा, चौथा और ग्यारहवां आरण्यक सम्मत भी है और श्रामणिक (श्रमणों का) भी है।' इन बारह साधनों में संन्याप सबसे उत्कृष्ट है।' आचार्य सायण ने लिखा है कि पूर्वोक्त सत्य से लेकर मानस-उपासना तक के साधन तप हैं, फिर भी संन्यास की अपेक्षा वे अवर हैं-निकृष्ट हैं। यही बात तिरसठवें अनुवाक में कही गई है-- तस्मान्न्यासमेषां तपसामतिरिक्तमाहुः' । आचार्य सायण ने लिखा है-- 'संन्यास परम पुरुषार्थ का अन्तरंग साधन है। इसलिए वह सत्य आदि तपों से अत्युत्कृष्ट है ।" प्रजनन (सातवां), अग्नि (आठवां), अग्निहोत्र (नौवां) और यज्ञ (दसवां)-ये श्रमणों द्वारा सम्मत नहीं हैं, इसकी संक्षिप्त चर्चा हम पहले कर चुके हैं। संन्यास श्रमणों का सर्वोत्कृष्ट साधन है, यह भी बताया जा चुका है। घर में कौन रहे'--यह १. तैत्तिरीयारण्यक, १०।६२, सायण भाष्य, पृ० ७६६ : सच ब्रह्मा परो हि परमात्मरूप हि । न तु पूर्वोक्तमतानुसारिण इव जीवः । यद्यप्यसौ हिरण्यगर्भो देहधारी तथापि परो सि परमात्मैव ब्रह्मा हिरण्यगर्भ इति वक्तुं शक्यते, तच्छिष्यत्वेन तत्समानज्ञानत्वात् । २. देखिये चौथा प्रकरण 'आत्म-विद्या क्षत्रियों की देन' शीर्षक । ३. तैत्तिरीयारण्यक, १०॥६२, पृ० ७६६ । ४. वही, १०६२, पृ०. ७६६ :
यानि पूर्वोक्तसत्यादीनि मानसान्तानि तान्येतानि तपांसि भवन्त्येव तथापि संन्यासमपेक्ष्यावराणि निकृष्टानि । ५. वही, १०।६३, पृ० ७७४ । ६. वही, १०१६३, पृ० ७७४ :
यस्मात् परमपुरुषार्थस्यान्तरंगं साधनं तस्मादेषां सत्यादीनां तपसां मध्ये संन्यासमतिरिक्तमत्युकृष्टं साधनं मनीषिण आहुः ।
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