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संस्कृति के दो प्रवाह
(१) अग्निहोत्र सायंकाल और प्रातःकाल में घरों का मूल्य है । अग्निहोत्र के अभाव में क्षुधित अग्नि घरों को जला डालती है, इसलिए वह घरों का मूल्य है । अग्निहोत्र अच्छा याज्ञ और अच्छा होना है । वह यज्ञऋतु' का प्रारम्भ है । स्वर्गलोक की ज्योति है, इसलिए कुछ ऋषि अग्निहोत्र को परम मोक्ष-साधन बतलाते हैं ।
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(१०) यज्ञ देवों को प्रिय है । देवता पूर्वानुष्ठित यज्ञ के द्वारा स्वर्ग को प्राप्त हुए हैं । वे यज्ञ के द्वारा ही असुरों का विनाश कर पाए हैं। ज्योतिष्टोम यज्ञ के द्वारा द्वेष करने वाले शत्रु भी मित्र बन जाते हैं । यज्ञ में सर्व प्रतिष्ठित हैं, इसलिए कुछ ऋषि यज्ञ को परम मोक्ष-साधन बतलाते हैं ।
(११) मानसिक उपासना ही प्रजापति के पद की प्राप्ति का साधन है । इसीलिए वह चित्तशुद्धि का कारण है । मानसिक उपासना से युक्त एकाग्र मन से योगी लोग अतीत, अनागत और व्यवहृत वस्तुओं का साक्षात्कार करते हैं। मानसिक उपासना से युक्त एकाग्र मन वाले विश्वामित्र आदि ऋषियों ने संकल्प मात्र से प्रजा का सृजन किया था । मानसिक उपासना में सर्व प्रतिष्ठित हैं, इसलिए कुछ ऋषि मानसिक उपासना को परम मोक्ष-साधन बतलाते हैं ।
(१२) कुछ मनीषी लोग संन्यास को परम मोक्ष-साधन बतलाते
हैं ।
यह तिरसठवें अनुवाक् का वर्णन है । बासठवें अनुवाक् में भी इन बारह पर्वों का निरूपण हुआ है । उनके भाष्य में आचार्य सायण ने कुछ महत्त्वपूर्ण सूचनाएं दी हैं- नैष्ठिक ब्रह्मचारी 'दम' को परम मान उसमें रमण करते हैं । आरण्यक मुनि वानप्रस्थ 'शम' को परम मान उसमें रमण करते हैं । वापी, कूप, तड़ाग आदि के निर्माणात्मक धर्म को राजा, मंत्री आदि परम मानते हैं । कुछ वेदार्थवादी अग्नि को परम मानते हैं । कुछ वेदार्थवादी अग्निहोत्र को परम मानते हैं । कुछ वेदार्थवादी यज्ञ को परम मानते हैं । कुछ वेदार्थवादी अग्निहोत्र को परम मानते हैं। कुछ वेदार्थवादी
१. तैत्तिरीयारण्यक, १०1६३, सायण भाव्य, पृ० ७७० :
अग्न्याधेयमग्निहोत्रं दर्शपूर्ण मासावाग्रयणं चातुर्मास्यानि निरूढपशुबन्धः सौत्रामणीति सप्त हविर्यज्ञाः । ऋतुशब्दो यूपवत्सु सोमयागेषु रूढः । अग्निष्टोमोऽत्यग्निष्टोम उक्थ्यः पोडशी वाजपेयोऽतिरात्रोऽप्तोर्यामश्चेति सप्त सोमसंस्था: ऋतवः । तेषां सर्वेषां यज्ञऋतूनां प्रारम्भकमग्निहोत्रम् ।
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