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संस्कृति के दो प्रवाह विद्वान् सन्तान (तथा सकाम कर्म आदि) की इच्छा नहीं करते थे। (वे सोचते थे) हमें प्रजा से क्या लेना है, जिन हमको कि यह आत्मालोक अभीष्ट है। अतः वे पुत्रषणा, वित्तषणा और लोकेषणा से व्युत्थान कर फिर भिक्षाचर्या करते थे।"
इस उद्धरण में पूर्ववर्ती विद्वान् सन्तान की इच्छा नहीं करते थे और लोकषणा से व्युत्थान कर फिर भिक्षाचर्या करते थे'-ये वाक्य निवर्तक परम्परा की ओर संकेत करते हैं। वैदिक परम्परा लोकषणा से विमुख नहीं रही है। उसमें पुत्रैषणा की प्रधानता रही है और यहां बताया है कि जो भी पुत्रैषणा है, वह वित्तषणा है और जो वित्तषणा है, वही लोकैषणा है।'
__श्रमण परम्परा का मुख्य सूत्र है-'लोकषणा मत करो'--'नो लोगस्सेसणं चरे।" भृगु पुरोहित ने अपने पुत्रों से कहा---'पहले पुत्रों को उत्पन्न करो, फिर आरण्यक मुनि हो जाना।" उन्होंने उत्तर की भाषा में कहा-'पिता ! पुत्र त्राण नहीं होते, इसलिए उन्हें उत्पन्न करना अनिवार्य धर्म नहीं है । वैदिक धारणा ठीक इस धारणा के विपरीत है। तैत्तिरीय संहिता में कहा गया है-'जन्म प्राप्त करने वाला ब्राह्मण तीन ऋणों के साथ ही जन्म लेता है। वे तीन ऋण हैं-ऋषिऋण, देवऋण और पितृऋण । ऋषियों का ऋण ब्रह्मचर्य से, देवों का ऋण यज्ञ से तथा पितरों का ऋण प्रजोत्पादन से चुकाया जा सकता है। पूत्रवान, यजनशील तथा ब्रह्मचर्य को पूर्ण करने वाला मानव उऋण होता है। इसी प्रकार ऐतरेय ब्राह्मण में बताया है.--'इक्ष्वाकुवंश के वेधस राजा का पुत्र राजा हरिश्चंद्र निःसंतान था। उसके सौ पत्नियां थीं। परन्तु उसके कोई पुत्र न हुआ। उसके घर में पर्वत और नारद दो ऋषि रहते थे। उसने नारद से पूछा"सभी पुत्र की इच्छा करते हैं, ज्ञानी हो या अज्ञानी । हे नारद ! बताओ, पूत्र से क्या लाभ होता है ?'
नारद ने इस एक प्रश्न का दस श्लोकों में उत्तर दिया। उनमें पहला
१. बृहदारण्यक, ४।४।२२ । २. वही, ४।४।२२। ३. आयारो ४१७ ॥ ४. उत्तराध्ययन, १४।६। ५. वही, १४।१२। ६. तैत्तिरीय संहिता, ६।३।१०।५
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