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संस्कृति के दो प्रवाह शब्द मिलता है, किन्तु ये सभी ग्रंथ भगवान् महावीर के उत्तरवर्ती हैं। उनके पूर्ववर्ती किसी भी ग्रंथ में अपरिग्रह शब्द का एक महान् व्रत के रूप में प्रयोग नहीं हुआ है।
जैन धर्म का बहुत बड़ा भाग व्रत और अवत की मीमांसा है। सम्भवतः अन्य किसी भी दर्शन में व्रतों की इतनी मीमांसा नहीं हुई। चौदह गुणस्थानों-विशुद्धि की भूमिकाओं में अव्रती चौथे, अणुव्रती पांचवें और महाव्रती छठे गुणस्थान का अधिकारी होता है। यह विकास किसी दीर्घकालीन परम्परा का है, तत्काल गृहीत परम्परा का नहीं। संन्यास और भामण्य
___ संन्यास श्रमण परम्परा का बहुत ही महत्त्वपूर्ण तत्त्व रहा है। अजितकेशकम्बल जैसे उच्छेदवादी श्रमण भी संन्यासी थे। वैदिक परम्परा में संन्यास की व्यवस्था उपनिषद्काल में मान्य हुई है। वैदिककाल में ब्रह्मचर्य और गहस्थ-ये दो ही व्यवस्था-क्रम थे। आरण्यक-काल में 'न्यास' (संन्यास) को मोक्ष का हेतु कहा गया है और वह सत्य, तप, दम, शम, दान, धर्म, पुत्रोत्पादन, अग्निहोत्र, यज्ञ और मानसिक उपासना-इन सबसे उत्कृष्ट बतलाया गया है। किन्तु वह किन लोगों द्वारा स्वीकृत था, इसका उल्लेख नहीं है। आश्रम-व्यवस्था का अस्पष्ट वर्णन छान्दोग्य उपनिषद् में मिलता है। वहां लिखा है-धर्म के तीन स्कन्ध (आधार-स्तम्भ) हैं-यज्ञ, अध्ययन और दान । यज्ञ पहला स्कन्ध है। तप दूसरा स्कन्ध है । आचार्य कुल में अपने शरीर को अत्यन्त क्षीण कर देना तीसरा स्कन्ध है। ये सभी पुण्यलोक के भागी होते हैं । ब्रह्म में सम्यक प्रकार से स्थित संन्यासी अमृतत्व को प्राप्त होता है।'
- बृहदारण्यक में संन्यास का उल्लेख है ।' जाबालोपनिषद् में चार आश्रमों की स्पष्ट व्यवस्था प्राप्त होती है। वहां बताया है कि ब्रह्मचर्य को समाप्त कर गृहस्थ, उसके बाद वानप्रस्थ और उसके बाद प्रवजित होना चाहिए। यह समुच्चय पक्ष है। यदि वैराग्य उत्कट हो तो ब्रह्मचर्य, गृहस्थ या वानप्रस्थ किसी भी आश्रम से संन्यास स्वीकार किया जा सकता है। १. तैत्तिरीयारण्यक १, अनुवाक् ६२, पृ० ७६६ : न्यास इति ब्रह्मा ब्रह्मा हि परः परो हि ब्रह्मा तानि वा एतान्यवराणि तपांसि न्यास एवात्यरेचयत् इति । २. छान्दोग्योपनिषद्, २१२३।१ । ३. बृहदारण्यकोपनिषद्, ४।४।२२ ।
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