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श्रमण परम्परा को एकसूत्रता और उसके हेतु जिस समा वैराग्य उत्पन्न हो, उसी समय प्रवजित हो जाना चाहिए । यह विकल्प पक्ष है।
____ चार आश्रमों की व्यवस्था हो जाने पर भी धर्मशास्त्र और कल्पसूत्रकार गृहस्थाश्रम को ही महत्त्व देते रहे हैं। वशिष्ठ ने लिखा है'आश्रम चार हैं-ब्रह्मचारी, गृहस्थ, वानप्रस्थ और परिव्राजक । गृहस्थ ही यजन करता है, तप तपता है । इसलिए चारों आश्रमों में वही विशिष्ट है। जैसे सब नदी और नद समुद्र में आकर स्थित होते हैं, वैसे ही सभी आश्रमी गृहस्थ आश्रम में स्थित होते हैं।'
वैदिक परंपरा के मूल में यह मान्यता स्थिर रही है कि वस्तुतः आश्रम एक ही है, वह है गहस्थाश्रम । बौधायन ने लिखा है-'प्रह्लाद के पूत्र कपिल ने देवों के प्रति स्पर्धा के कारण आश्रम-भेदों की व्यवस्था की है, इसलिए मनीषी वर्ग को उसका स्वीकार नहीं करना चाहिए।" _ इसी भूमिका के सन्दर्भ में ब्राह्मण वेषधारी इन्द्र ने नमि राजर्षि से कहा था-'राजर्षे ! गृहवास घोर आश्रम है। तुम इसे छोड़ दूसरे आश्रम में जाना चाहते हो, यह उचित नहीं। तुम यहीं रहो और यहीं धर्म-पोषक कार्य करो।'
इसके उत्तर में नेमि राषि ने जो कहा वह श्रमण परंपरा का पक्ष है। उन्होंने कहा-'ब्राह्मण ! मास-मास का उपवास करने वाला और पारण में कुश की नोक पर टिके उतना स्वल्प आहार खाने वाला गृहस्थ मुनि-धर्म की सोलहवीं कला की तुलना में भी नहीं जाता। ___श्रमण परंपरा में जीवन के दो ही विकल्प मान्य रहे हैं-गृहस्थ
१. जाबालोपनिषद्, ४। २. वाशिष्ठ धर्मशास्त्र, ७१।२ । ३. वही, ८।१४-१५
गृहस्थ एव यजते, गृहस्थस्तप्यते तपः चतुर्णामाश्रमाणां तु, गृहस्थश्च विशिष्यते । यथा नदी नदाः सर्वे, समुद्रे यान्ति संस्थितिम् । एवमाश्रमिणः सर्वे, गृहस्थे यान्ति संस्थितिम् ।। ४. बौधायन धर्मसूत्र, २।६।३० : प्रह्लादिहवै कपिलो नामासुर आस स ऐतान्भेदांश्चकार देवः सह स्पर्धमान
स्तान् मनीषी नाद्रियेत । ५. उत्तराध्ययन, ६।४२-४४ ।
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