________________
संस्कृत-साहित्य में सरस्वती का विकास प्रथम दिखाया गया है कि सरस्वती धनदात्री है। यही कारण है कि उसका स्तन 'शशयः', 'रत्नधा' तथा 'वसुवित्' कहा गया है । पुनः उसे रायश्चेतन्ती, आपो रेवतीः कहा गया है । सरस्वती आनन्द-दात्री भी है । 'मयोभूः' शब्द इसकी पुष्टि करता है । सरस्वती सन्तानः दात्री भी है । इस तात्पर्य से सरस्वती का स्तवन सिनीवात्नी तथा अश्विनौ ( ऋ० १०. १८४.१ ) के साथ हुआ है । यह अन्न-दात्री के रूप से वाजिनीवती तथा वाजिनी कही गई है । 'वाज' का अर्थ अन्न, बल आदि है । इसके अतिरिक्त 'प्रायूंषि' तथा 'यशस्' भूरिशः उसके प्रकृत स्वरूप का कथन करते हैं । पाँचवें शीर्षक के अन्तर्गत सरस्वती की प्रमुख विशेषताओं का वर्णन किया गया है। वाजिनीवती, पावका, घृताची पारावतध्नी, चित्रायुः, हिरण्यवर्तनी, असुर्या, धरुणमायसी पूः और कवारी इसके विशेष व्यक्तित्व का ख्यापन करते हैं । छठें शीर्षक के अन्तर्गत इसका मित्र, दक्ष, वरुण, सोम, अश्विन्, मरुत्, अग्नि, इन्द्र, विष्णु, रुद्र, पूषन्, पर्जन्य, बृहस्पति, अर्यमा, वायु, वाज, वात, पवमान, अज - एकपाद्, विश्वेदेवा, विभु, आदित्य, आप: आदि से सामान्य सम्बन्ध दिखाया गया है । मरुत्सख्या, मरुत्वती और मरुत्सु भारती से मरुतों के साथ सरस्वती का एक विशेष सम्बन्ध ज्ञात होता है । 'वृष्णः पत्नी:' से सरस्वती का इन्द्र के साथ घनिष्ठ सम्बन्ध प्रकट होता है, क्योंकि वह माध्यमिका देवी - रूप से इन्द्र को वृत्र हनन में सहायता प्रदान करती है । वाजसनेयि-संहिता सरस्वती को अश्विनों की पत्नी घोषित करती है । सरस्वती का कतिपय स्त्री देवियों के साथ सामान्य रूप से वर्णन हुआ है, परन्तु वह इला तथा भारती के साथ ऋग्वैदिक देवियों का निक् बनाती है । अन्त में सरस्वती का सरस्वान् से सम्बन्ध दिखाया गया है । सरस्वान् का अर्थ नदी -देवता, बादल, आदित्य, समुद्र इत्यादि किया गया है तथा इस रूप में वह सरस्वती का पति है ।
तीसरा अध्याय 'यजुर्वेद में सरस्वती का स्वरूप' है । ऋग्वेद की भाँति यहाँ भी सरस्वती के भौतिक रूप को सर्वप्रथम दिखाया गया है । तदनन्तर इसकी विशिष्ट उपाधियों का विवेचन किया गया है । इन उपाधियों में यशोभगिनी, हविष्मती, सुदुधा और जागृवि प्रमुख हैं । तदनन्तर सरस्वती को एक चिकित्सिका के रूप में प्रस्तुत किया गया है । इस सम्बन्ध में सौत्रामाणि तथा भेषज यज्ञों का वर्णन किया गया है । इन्द्र सोम का अत्यन्त प्रेमी है । जब वह सोम का अधिक पान कर लेता है, तब वह उसके मद से प्रभावित हो जाता है । देवता उसके इस मद का नाश 'सौत्रामाणि यज्ञ' से करते हैं, क्योंकि यह सोम के कुप्रभाव को दूर करता है । 'भेषज यज्ञ' का तात्पर्य यह हैं कि जब नमुचि विश्वासघात के द्वारा इन्द्र के मद्य का अपहरण कर लेता है, तब वह शारीरिक हानि को प्राप्त होता है । सरस्वती तथा अश्विन् उसकी चिकित्सा करते हैं । तदनन्तर इन्द्र शरीर तथा स्वास्थ्य लाभ प्राप्त करता है। चौथे शीर्षक के अन्तर्गत सरस्वती का सारस्वत से सम्बन्ध दिखाया गया है । यहाँ सारस्वत को सरस्वान् के समकक्ष समझना चाहिये । अन्त में सरस्वती को 'मिल्स काउ' अर्थात् एक दुधारु गाय के रूप में
३