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संस्कृत - साहित्य में सरस्वती का विकास
कृषि - कार्म को उत्तम बताया गया है । अन्त में अथर्ववैदिक देवियों का त्रिक् प्रदशित है ।
पञ्चम अध्याय 'ब्राह्मणों में सरस्वती का स्वरूप' है । इसमें सर्वप्रथम वाक् पर विचार किया गया है तथा वाक् पर भाषा - विज्ञान की दृष्टि से प्रकाश डाला गया है । तदनन्तर वाक् पर ऋग्वैदिक तथा ब्राह्मणिक दृष्टियों से विचार किया गया है । ब्राह्मणिक प्रङ्गगों से ऐतरेय तथा शतपथब्राह्मणों के दो आख्यान प्रस्तुत किये गये हैं, जिनसे वाक् की दिव्यता प्रगट होती है तथा देवों का उससे घनिष्ठ सम्बन्ध ज्ञात होता है । यहाँ तीसरे शीर्षक में सरस्वती की कतिपय उपाधियों का विवेचन किया गया है । इन उपाधियों में वंशम्भल्या, सत्यवाक्, सुमृडीका, सुभगा, वाजिनीवती और पावका मुख्य हैं । इसके बाद सरस्वती तथा सरस्वान् का सम्बन्ध निरूपित है । तदनन्तर ब्राह्मणिक प्रसङ्गों से वाक् के विभिन्न स्वरूपों पर विचार किया गया है । वहाँ सर्वप्रथम दिखाया गया है कि सरस्वती एक नदी थी । जल की अत्यन्त पवित्रता के कारण वह वाक् तथा वाक् की देवी बनी । विश्व की उत्पत्ति का सिद्धान्त भी वाक् से सम्बद्ध है । इसको एक उदाहरण से समझाया गया है । गायत्री आठ अक्षरों वाली होती है । गायत्री के ये आठ अक्षर प्रजापति के आठ क्षरण - व्यापार ही हैं, जिस समय वह सृष्टि करना चाहते थे । ब्राह्मण-काल यज्ञ-याग प्रधान काल था । यज्ञों में वाणी की प्रमुखता होती है । प्रायः सभी ब्राह्मणों ने एक स्वर से सरस्वती को 'वाग्गै सरस्वती' माना है । ऐसे ब्राह्मणों में शतपथ, गोपथ, ताण्ड्य, ऐतरेय, शाङ्खायन, तैत्तिरीय तथा ऐतरेयआरण्यक प्रमुख हैं ।
छठें अध्याय का नाम 'सरस्वती का पुराणों में स्थान ' है । यहाँ सर्वप्रथम सरस्वती की पौराणिक उत्पत्ति दिखाई गई है । ब्रह्मवैवर्त, मत्स्य, पद्म, वायु, और ब्रह्माण्ड पुराण विभिन्न प्रकार से सरस्वती की उत्पत्ति प्रस्तुत करते हैं । तदनन्तर सरस्वती के रङ्ग (Colour) पर विचार किया गया है तथा उसे श्वेत वर्णा, श्यामा तथा नीलकण्ठी बताया गया है । इन वर्गों के कथन से उसके आन्तरिक गुणों पर प्रकाश डाला गया है । ब्राह्मणिक सरस्वती श्वेत वर्ण है, क्योंकि उसे श्वेतभुजा, श्वेताङ्गी, आदि कहा गया है, परन्तु बौद्ध तथा जैन धर्मों में भी अनेक विद्या की देवियाँ हैं, अत एव इस प्रसङ्ग से उन पर भी विचार किया गया है । श्रीविद्यार्णवतंत्र में सरस्वती को नीलसरस्वती कहा गया है । तदनन्तर सरस्वती के वाहनों पर विचार किया गया है । ब्राह्मणिक सरस्वती का वाहन हंस है, परन्तु जैन धर्म में अनेक विद्या की देवियाँ हैं । मोर, गाय, हाथी, गरुड, कोयल, हिरण, कच्छप, मनुष्य, घड़ियाल आदि को उन देवियों का वाहन माना गया । वाहनों के विस्तृत विवेचन के पश्चात् हंस तथा मोर का प्रतीकार्थ दिखाया गया है । हंस वस्तुतः जीवात्मा तथा परमात्मा के एकत्व का प्रतिनिधित्व करता है । मोर यज्ञ से सरस्वती के निकटतम सम्बन्ध को अभिव्यक्त करता है । तदनन्तर सरस्वती की पौराणिक प्रतिमा का विवेचन है । यहाँ मत्स्य तथा विष्णुधर्मोत्तर पुराणों के मत उद्धृत हैं। अग्निपुराण का निर्देश है कि सरस्वती तथा सावित्री की प्रतिमाएँ ब्रह्मा की मूर्ति