Book Title: Sanskrit Sahitya Me Sarasvati Ki Katipay Zankiya
Author(s): Muhammad Israil Khan
Publisher: Crisent Publishing House

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Page 132
________________ ११४ संस्कृत-साहित्य में सरस्वती की कतिपय झाँकियाँ तथा मन प्रजापति है । छन्द विभिन्न तत्वों का प्रतिनिधित्व करता है ।" इस प्रकार प्रजापति, वाक् तथा छन्द का पारस्परिक सम्बन्ध है । सृष्टि के आदि में प्रजापति था । तदनन्तर वाक् की उत्पत्ति हुई । सृष्टि के निर्माण के लिए प्रजापति का वाक् पर पूर्ण आधिपत्य है । इसी आधिपत्य के कारण वही प्रजापति वाचस्पति भी कहलाता हैं ।" प्रजापति को कतिपय अन्य नामों से भी अभिहित किया गया है तथा ये नाम उनकी उपाधियाँ प्रतीत होती हैं । उनमें प्रमुख इलस्पति, वाचस्पति, ब्रह्मणस्पति आदि हैं ।" वाक् निर्माण में प्रबल शक्ति है, क्योंकि छन्द जो वाक् के ही अवयव हैं, उन्हें इन्द्रिय कहा गया है । १०० ९९ ११. वाक् का सरस्वती से समन्वय : केवल ब्राह्मण-ग्रंथों में वाक् तथा सरस्वती का समन्वय स्पष्ट रूप से प्रस्तुत किया गया है । इस सम्बन्ध में प्रमुख ब्राह्मणों के कुछ सन्दर्भ प्रस्तुत किये जा रहे हैं । (क) शतपथब्राह्मण: उपर्युक्त प्रसङ्ग से शतपथ ब्राह्मण में कई सन्दर्भ प्राप्त होते हैं । यहाँ कुछ स्थल द्रष्टव्य है । यहाँ कहा गया है कि पवित्रीकरण - संस्कार हो रहा है और उसमें सरस्वती का जल छिड़का जा रहा है । यह विधि वस्तुतः वाक् के द्वारा सम्पन्न समझनी चाहिए ।" यह ब्राह्मण पुनः बलपूर्वक कहता है कि सरस्वती वाक् है तथा वाक् यज्ञ है । १०२ चूँकि सरस्वती वाक् है, अत एव प्रजापति ने इससे स्वयं को शक्तिशाली बनाया । १०३ हम ऋग्वेद में देखते हैं कि वाक् एक ऋषि की पुत्री है " तथा वह एक स्त्री के रूप में हमारे सामने आती है । इस सन्दर्भ में सरस्वती का वर्णन नहीं है, परन्तु जब वाक् को एक ऋषि की पुत्री कहा गया है, तो इससे सरस्वती की उत्पत्ति का आभास मिलता है, क्योंकि सरस्वती वाक् के मुख से निस्सृत है । शतपथब्राह्मण सरस्वती को एक स्त्री के रूप में प्रस्तुत करता है तथा वह वाक्- स्वरूप है । १०५ ६७. शतपथब्राह्मण रत्नदीपिका भाष्य सहित, भाग १ ( नई दिल्ली, १९६७), पृ० ११३ - ११४; श० ब्रा० ८.५.२.६ के प्रसङ्ग में । १८. वही, ३.१.३.२२; ५.१.१.१६ ६६. बृहद्देवता, ३.७१ १००. तैत्तिरीयब्राह्मण, २.६.१८.१.३ १०१. श० ब्रा०, ५.३.४.३, ५.८ १०२. वही, ३.१.४.६,१४ १०३. वही, ३.९.१.७ १०४. ऋ० १०.७१ १०५. श० ब्रा० ४.२.५.१४,६.३.३

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