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ब्राह्मणों में सरस्वती का स्वरूप यजुर्वेद में वाक् को सरस्वती की नियन्त्री-शक्ति माना गया है। शतपथब्राह्मण ०७ में सर्वप्रथम सरस्वती को वाक् के रूप में प्रस्तुत किया गया है तथा पुनः वाक् को उसकी नियन्त्री-शक्ति घोषित किया गया है । सम्भवतः यहाँ ज्ञान की ओर सङ्कत किया गया है, जो विवेक से उत्पन्न होता है। सरस्वती तथा वाक् का तादात्म्य मन से भी उपलब्ध होता है तथा इसी मन में प्रकट होने के पूर्व विचार प्रसुप्त रहते हैं। एक अन्य स्थल पर सरस्वती का तादात्म्य मन तथा वाक् से प्राप्त होता है : “सरस्वती त्वोत्सवी प्रावतामिति मनो वै सरस्वान् वाक् सरस्वत्येतो।" इस प्रकार सरस्वती तथा सरस्वान् वाक् का पूर्ण निर्माण करते हैं ।
(ख) गोपथब्राह्मण–यहाँ भी वाक् का सरस्वती से स्पष्ट तादात्म्य प्रस्तुत किया गया है । इस ब्राह्मण का कथन है कि जो सरस्वती की स्तुति करता है, वह वाक् को ही प्रसन्न करता है, क्योंकि वाक् सरस्वती है : "प्रथ यत् सरस्वती यजति, वाग् वै सरस्वती, वाचमेव तेन प्रीणाति । ११०
(ग) ताड्यमहाब्राह्मण-वैदिकेतर साहित्य में वाक् की बृहत् कल्पना पाई जाती है । इसकी परिधि में सरस्वती, वर्ण, अक्षर, पद, वाक्य तथा ध्वनि का समावेश माना गया है ।१९ यह समन्वय ब्राह्मणों में भी उपलब्ध होता है । सरस्वती की वाक् से तादात्म्यता प्रस्तुत करते हुए ब्राह्मण कहता है : "वाग्वै सरस्वती वाग् वैरूपं वरूवमेव अस्मै तया पुनक्ति । ११२ यहाँ सरस्वती को शब्दात्मिका वाक् के रूप में प्रस्तुत किया गया है, अर्थात् सरस्वती वाग्रूप है, जिससे शब्द तथा ध्वनि की अभिव्यक्ति होती है । यहाँ 'रूपम्' शब्द का प्रयोग हुआ हैं, यह वाक् के विभिन्न रूपों को प्रगट करता है । 'वैरूपम्' के द्वारा विभिन्न पदार्थों का प्रकटीकरण हुआ है ।११५
(घ) ऐतरेयब्राह्मण-इस ब्राह्मण के एक स्थल पर सरस्वती को वाक् तथा पुनः उसे पावीरवी की संज्ञा दी गई है । जो पावीरवी की स्तुति करता है, वह सरस्वती को ही प्रसन्न करता है । यहाँ पावीरवी से ध्वनि की अभिव्यक्ति हो रही है। ११४
(ङ) एतरेय-आरण्यक-ऋग्वेद में सरस्वती को धियावसुः तथा पावका कहा
१०६. यजुर्वेद, ६.३० १०७. श० ब्रा० ५.२.२.१३,१४ १०८. वही, १२.६.१.१३ १०६. वही, ७.५.१.१३,११.२.४.६,६.३ ११०. गोपथब्रा० २.२० १११. तु० डॉ० मुहम्मद इसराइल खाँ, पूर्वोद्धृत ग्रंथ, पृ० ६६ ११२. ता० ब्रा० १६.५.१६ ।
११३. सायण की व्याख्या वही । ___. ११४. सायण-व्याख्या ऐ० ब्रा० ३.३७