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सरस्वती का पौराणिक पदी-स्प
किनारे रहा करते थे। ये उनके लिए नितान्त सम्मान-जनक थीं, अत एव उनके सम्मानार्थ यज्ञानि को प्रज्ज्वलित करना स्वाभाविक था । शनैः-शनैः वे दक्षिण-दिशा की ओर बढ़ने लगे, परन्तु उनके प्रति उनका सम्मान पूर्ववत् बना रहा । यही कारण है कि उत्तर भारत की नदियाँ दक्षिण की अपेक्षा अधिक सम्मानास्पद हैं। ब्रह्मपुराण की भांति अग्निपुराण में भी पवित्र नदियों की एक लम्बी परम्परा मिलती है ।'
अग्निपुराण ने नदी-विशेष की पवित्रता स्थान-विशेष पर बताई है। उसके अनुसार गङ्गा की पवित्रता कनखल में है, सरस्वती की कुरुक्षेत्र में, परन्तु नर्मदा की पवित्रता सर्वत्र है । नदी-जल विशेष की प्रशंसा में इस पुराण का कथन है कि सरस्वती का जल मनुष्य को तीन दिन में पवित्र बनाता है, यमुना का सात दिन में, गङ्गा का तत्क्षण; परन्तु नर्मदा केवल दृष्टिमात्र से ही सबको पूत करती है। अस्तु, सरस्वती अपनी पवित्रता से सव पापों का भजन करने वाली है, अत एव उसे सर्वपापप्रणाशिनी" कहा गया है। सरस्वती का न केवल जल, अपितु तटप्रान्त भी अतीव पवित्र माना गया है। पवित्र जलयुक्त (पुण्यतोया, पुण्यजला') होने के कारण उसे 'शुभा, पुण्या 'अतिपुण्या" आदि उपाधियों से विभूषित किया गया है।
तपस्याचरण करने वाले ऋषियों को शान्त वातावरण की आवश्यकता होती है, जो उनके चित्तेकाग्रता में सहायक सिद्ध हो सके। सरस्वती का तटभाग अनुकूल वातावरण से युक्त था, अत एव वह ऋषिगणों से परिव्याप्त था।' ऋषिगण वहाँ अपने नित्य-कर्म का अनुष्ठान करते हुए रहा करते थे तथा सरस्वती के जल का पान कर अतिशयानन्द उठाते थे । इस प्रकार के ऋषियों में सर्वाधिक सम्मानार्ह ऋषि कर्दम थे। उनके विषय में प्रसिद्धि है कि वह सरस्वती के महान भक्त थे एवं उसके किनारे रह कर दस हजार वर्षों तक घोर तप किया। यहीं सरस्वती का वह स्थान है, जहाँ 'अश्वत्थ' वृक्ष के नीचे समाधिस्थ भगवान् श्रीकृष्ण ने 'आत्मोत्सर्ग कर दिया था।
१. अग्निपुराण, २१६।६९-७२ २ वही, १६८।१०-११ ३. वामनपुराण, ३२।३; स्कन्दपुराण, ७।३४।३१ ४. मत्स्यपुराण, ७।३ ५. वामनपुराण, ३२।२; ३७।२६,३८ ६. पद्मपुराण, ५।२७।११६ ७. वामनपुराण, ३२।२; मार्कण्डेयपुराण, २३॥३. ८. वामनपुराण, ३२।२४, ३४१६ ६. वही, ४२।६ १०. भागवतपुराण, ३।२२।२७ ११. वही, ३।२११६ १२. वही, ३।४।३-८