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पुराणों में सरस्वती की प्रतिमा
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अग्निपुराण की भाँति मत्स्यपुराण के २५८ - २६४ अध्याय इसी विधि का प्रतिपादन करते हैं । इस पुराण के अनुसार भी सरस्वती की मूर्ति में ब्रह्मा की मूर्ति का अनुकरण सादृश्य स्पष्ट है । विधान है कि ब्राह्माणी ( ब्रह्मा की पुत्री अथवा स्त्री अर्थात् सरस्वती) ब्रह्मसदृशी होनी चाहिए : 'ब्रह्माणी ब्रह्मसदृशी' ।' ब्रह्मा के विषय में बताया गया है कि उन्हें कमण्डलुधारी एवं चतुर्मुखापन्न होना चाहिए। वे हंसाधिरूढ भी हो सकते हैं एवं कमलासीन भी । अतः तदनुरूप सरस्वती की प्रतिमा भी चार मुखों, चार हाथों, हंसाधिरूढा, अक्षमाला एवं कमण्डलुधारिणी होनी चाहिए : 'चतुर्वक्त्रा चतुर्भुजा'; 'हंसा धिरूढा कर्त्तव्या साक्षसूत्रकमण्डलुः' ।' इस पुराण 'अनुसार भी सरस्वती - मूर्ति का ब्रह्मा - मूर्ति के साथ घनिष्ठ सम्बन्ध एवं तादात्म्य है । एक स्थल पर यह बात बलपूर्वक कही गई है कि ब्रह्मा की मूर्ति के समीप एक स्थल ऐसा भी होना चाहिए, जो घृतबलि के कार्य आए; चारो वेद समीपस्थ हों; सावित्री बायें भाग में हों तथा सरस्वती दक्षिणस्थ ।' यहाँ जहाँ तक सावित्री एवं सरस्वती के स्थान - ग्रहण का प्रश्न है, अग्निपुराण की 'आज्यस्थाली सरस्वती सावित्री वामदक्षिणे' से मेल नहीं खाती; दोनों में विरोध सा लगता है। ऐसा जान पड़ता है कि उपस्थिति की अपेक्षा स्थान - विशेष की निगूढता परिहार्य है ।
अग्नि एवं मत्स्य पुराणों की भाँति विष्णुधर्मोत्तर का तीसरा खण्ड पूर्णतया प्रतिमाविद्या की विशेषता का ही वर्णन करता । इसके ४४वें अध्याय में ब्रह्मा को कमलासन रूप में चित्रित किया गया है । यहाँ सावित्री उनकी बायीं गोद को सुशोभित करती हैं ।" इसकी सबसे बड़ी विशेषता सरस्वती की अनुपस्थिति है, जो अग्निपुराण तथा मत्स्यपुराण में प्राय: सावित्री के साथ पाई जाती हैं ।
पुराणों ने मूर्ति की जिन विधियों का प्रतिपादन किया है, उनका देश के विभिन्न मूर्तिकलाओं में प्रयोगात्मक स्वरूप भी दृष्टिगोचर होता है । इस कथन की
१. मत्स्यपुराण, २६१.२४ २ . वही, २६०. ४०
"ब्रह्मा कमण्डलुधरः कर्तव्यः स चतुर्मुखः । हंसारूढः क्वचित्कार्यः क्वचिच्च कमलासनः ॥
३. वही, २६१.२४
४. वही, २६१.२५
५. वही, २६०.४४
'आज्यस्थालों न्यसेत्पादर्वे वेदांश्च चतुरः पुनः । वामपारस्थ सावित्री दक्षिणे च सरस्वतीम् ॥'
६. अग्निपुराण, ४६.१५
७. तुलनीय डॉ० प्रियबाला शाह, विष्णुधर्मोत्तरपुराण, तृतीय खण्ड, भाग २, ( एम० एस० यूनीवर्सीटी, बड़ौदा, १९६१), पृ० १४०