Book Title: Sanskrit Sahitya Me Sarasvati Ki Katipay Zankiya
Author(s): Muhammad Israil Khan
Publisher: Crisent Publishing House

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Page 107
________________ ब्रह्मा और सरस्वती के मध्य पौराणिक प्रेमाख्यान कहा गया है : “मनो वै प्रजापतिः।" यही प्रजापति अपने रेतस् (काम)को वाक् (सरस्वती) में निक्षिप्त करता है। कहीं-कहीं वाक् का तादात्म्य प्रजापति, विश्वकर्मा, सम्पूर्ण संसार तथा इन्द्र के साथ पाया जाता है ।१४ शतपथब्राह्मण के सृष्टिवियषक आख्यान में कहा गया है कि जब प्रजापति सृष्टि के लिए इच्छुक थे, तब उन्होंने अपने मस्तिष्क से वाक की सष्टि थी। पन: उससे जलों को उत्पन्न किया। यहाँ प्रजापति तथा वाक् के मध्य लैङ्गिक सम्बन्ध प्रदर्शित किया गया है । काठक-उपनिषद् में इसी को निम्नलिखित रूप में अभिव्यक्त किया गया है : "Prajapati was this universe. Vak was second to him. He associated sexually with her; she became pregnant ; she departed from him ; she produced these creatures ; she again entered into Prajapati” __ प्रजापति सृष्टि के स्रोत हैं तथा सृष्टि के पाँच तत्त्वों में से एक वाक् प्रजापति की महत्ता (greatness) की प्रतीक है। यहाँ भावार्थ उस प्रकार निकाला जा सकता है । प्रजापति ब्रह्मा के समकक्ष हैं। सरस्वती के गर्भाशय में जिस वीर्य (रेतस्) का आधान किया गया, वह प्रजापति की शक्ति है, जिसका उपयोग वाक् की उत्पत्ति के लिए किया गया। यहाँ एक अन्य सुसंयत मत प्रस्तुत किया जा सकता है कि कैसे मन से वाक् की उत्पत्ति होती है । अभिव्यक्तिकरण के पूर्व वाक् स्वतः मन है । मनस् तथा वाक् का पारस्परिक सम्बन्ध तथा समन्वय इस प्रकार जानना चाहिए । मनस् (मन) प्रथमतः 'रस' तथा 'बल' से सममात्रा में अवच्छिन्न रहता है (रसबलसममात्रावच्छिन्नः) । दोनों तत्त्वों की साम्यावस्था में सब वस्तु स्थिरावस्था में होती है, अत एव कोई कार्य उत्पन्न नहीं होता है । जब थोड़ा सा बलाघात होता है, अर्थात् विचार के प्रकटीकरणार्थ जब इच्छा होती है, तब मन श्वास में परिणत हो जाता है । जब बलाघात तीव्र तथा तीव्रतर हो जाता है, तब वही श्वास वाक् में परिणत हो जाती है । इस मनोवैज्ञानिक आधार पर भी वाक् तथा मन का घनिष्ठ सम्बन्ध हैं, अर्थात् ये mind और speech ही हैं, जिन का पुराणों में ब्रह्मा के मनस् का सरस्वती (वाक्) के साथ एक सांसारिक प्रेम की परिणिति सी है। पुनः इस कथा को एक भिन्न प्रणाली से स्पष्ट कर सकते हैं । प्रत्यक्ष-रूप से १४. ए० बी० कीथ, द रिलीजन एण्ड फिलासोफी ऑफ द वेद एण्ड उपनिषद्स, भाग २ (लण्डन, १९२५), पृ० ४३८ १५. जॉन डाउसन, ए क्लासिकल डिक्शनरी ऑफ हिन्दू माइथालोजी (लण्डन, १९६१), पृ० २२६-३३० १६. वही, पृ० ३३० १७. वी० एस० अग्रवाल, 'क' प्रजापति, जनरल ऑफ ओरिएन्टल इन्स्टीच्यूट, भाग ८, न० १ (बड़ौदा, १९५८), पृ० १-४

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