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ब्राह्मणों में सरस्वती का स्वरूप
१०१ इस मंत्र में स्पष्ट रूप से कहा गया है कि बृहस्पति ने सर्वप्रथम वाक् की उत्पत्ति की । दूसरे मंत्र में कहा गया है कि बुद्धिमानों ने (wise men) वाक् की रचना की : “यत्र धीरा मनसा वाचमकत"। एक दूसरा मंत्र यह उद्घाटित करता है कि कैसे सांसारिक प्रयोग के लिए वाणी की प्राप्ति हुई । तदर्थ मंत्र में उल्लिखित है कि बुद्धिमानों ने वाणी को यज्ञ के माध्यम से प्राप्त किया। वाणी की प्राप्ति में पूर्ण श्रेय केवल उन्हीं को नहीं है, अपितु ऋषियों को भी है, जिन्होंने सर्वप्रथम वाणी को प्राप्त किया तथा उस के व्यापक प्रयोग के लिए बुद्धिमानों को दे दिया :
यज्ञन वाचः पदवीयमायन् तामन्वविन्दंऋषिषु प्रविष्टाम् ।
तामाभत्या व्यदधुः पुरुत्रा तां सप्त रेभा अभि सं नवन्ते ॥ इस ऋग्वैदिक प्रमाण से स्पष्ट है कि वाक् दैवी है, अर्थात् उस की उत्पत्ति देवी है । ऋषियों ने उसे प्राप्त कर बुद्धिमानों को दिया । इन लोगों ने ज्ञान अथवा वेद के रूप में इस वाणी का अध्ययन किया । अन्त में वाणी सामान्य जन को मिली। निम्नलिखित मंत्र में वाणी का रहस्योद्घाटन है :
उत त्वः पश्यन् न ददर्श वाचमुत त्वः शृण्वन् न शृणोत्येनाम् । उतो त्वस्मै तन्वं वि सस्र जायेव पत्य उशती सुवासाः ॥
३. ब्राह्मणिक सिद्धान्त : ब्राह्मण ग्रंथ अनेकशः वाणी की दिव्यता का वर्णन करते हैं। वाणी की दिव्यता इस से भी स्पष्ट है कि वह देवों से घनिष्ठ रूप से सम्बद्ध है । इसी वाणी ने वेदों को जन्म दिया तथा इस के अन्दर सम्पूर्ण संसार निहित है : "वाचा वै वेदाः सन्धीयन्ते वाचा छन्दांसि "वाचा सर्वाणि ।" वाक् को माँ तथा श्वास (प्राण) को उस का पुत्र कहा गया है : "वाग् वै माता प्राणः पुत्रः ।" इस से स्पष्ट है कि वाक् अत्यन्त शक्तिशालिनी है तथा संसार को उत्पन्न करने में सक्षम है, परन्तु यह संसार साक्षात् उस से समुत्पन्न नहीं जानना चाहिए । इस सन्दर्भ में उल्लिखित है कि वह प्रजापति से प्रगाढ रूप से सम्बद्ध है । वह प्रजापति संसार को उत्पन्न करता है । इसी प्रकार बृहस्पति सर्वप्रथम वाक् को उत्पन्न करता है तथा वह वाक् का स्वामी है । यहाँ बृहस्पति तथा प्रजापति दोनों को वाक् से सम्बद्ध किया गया है । वेदों में बृहस्पति तथा प्रजापति दोनों भिन्न-भिन्न देव हैं, परन्तु यहाँ दोनों का तादात्म्य लक्षित होता है, क्योंकि दोनों वाक्
४. वही, १०.७१.२ ५. वही, १०.७१.३ ६. विल्सन की टिप्पणी वही, १०.७१.३ ७. वही, १०.७१.४ ८. ऐतरेय-प्रारण्यक, ३.१.६ ६. वही, ३.१.६