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संस्कृत-साहित्य में सरस्वती की कतिपय झांकियाँ
को एक ऐसी भूमि के रूप में चित्रित कर रहा है, जो जल-युक्त है : 'सरस्वती सरोयुक्तभूमिरूपा इण्टके' । इस स्थिति में सरस्वती सुमृडीका के रूप से उस भूमि का प्रतिनिधित्व करती है, जिसकी मिट्टी अत्यन्त उर्वरा है । उपजाऊ भूमि अच्छी फसल को उत्पन्न करती है, जिससे समृद्धि आती है। सरस्वती इस प्रकार का कार्य करती है, अत एव उसे 'शिवा' तथा 'शन्तमा' होने की प्रार्थना की गई है। यहाँ 'शिवा' का अर्थ कल्याण प्रदान करने वाली तथा 'शन्तमा' का अर्थ शान्ति प्रदान करने वाली, दुःखों और आपत्तियों का दमन करने वाली है।
____ इन उपाधियों के अतिरिक्त सरस्वती को ब्राह्मणों में सुभगा, वाजिनीवती६ पावका ७, इत्यादि कहा गया है ।
८. सरस्वती तथा सरस्वान् : शतपथब्राह्मण के अनुसार सरस्वान् मनस् का प्रतीक है: 'मनो वै सरस्वान्' तथा सरस्वती वाक् की प्रतीक हैः 'वाक् सरस्वती।' यहीं दो सारस्वतों की कल्पना दो स्रोतों के रूप में की गई है: 'सारस्वतो त्वोत्सौ। सरस्वान् तथा सरस्वती की मन तथा वाक् में तादात्म्यता की झलक स्पष्टतः एक दूसरे काण्ड में प्राप्त होती है : “मनश्चैवाऽस्य वाक् चैघारौ सरस्वांश्च सरस्वती च सव्विद्यान् मनश्चैव मे व्वाक् चाघारौ सरस्वांश्च सरस्वती चेति ।"९९९
इस प्रकार मन तथा वाक् सन्निकटता से एक दूसरे से सम्बद्ध हैं । एतदर्थ सायण को उद्धृत किया जा रहा है : "मनश्चैवेत्यादि । 'अस्य' यज्ञशरीरस्य इमौ आधारौ मनोवा पो ज्ञातव्यो । तौ क्रमेण 'सरस्वांश्च सरस्वती च एतद् द्वयात्मको भवतः । आध्यात्मकं तयोरुपासनमाह । सवीद्यादिति । मम मनश्च वा च सरस्वत्सरस्वतीरूपावाधाराविति जानीयादित्यर्थः।"७० ___ मन तथा वाक् के तादात्म्य को एक भिन्न प्रकार से भी जाना जा सकता है । मनस् समान रूप से 'रस' तथा 'बल' आच्छिन्न माना गया है (रसबलसममात्रावच्छिन्न) । समता की स्थिति में सम्पूर्ण वस्तु स्थिर तथा निश्चल रहती है, अत एव कोई प्रभाव तथा कार्य की स्थिति नहीं बनती है । जब थोड़ा भी बलाघात होता है,
६३. वही, १.१.३ ६४. वही, ४.४२.१ ६५. तं ब्रा० २.५.४.६ ६६. वही, २.५.४.६,८.६ ६७. वही, २.४.३.१ ६८. श० ब्रा० ७.५.१.३१ ६६. वही, ११.२.६.३ ७०. सायण-भाष्य वही, ११.२.६.३