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-१३ब्राह्मणों में सरस्वती का स्वरूप
१. वाणी तथा उनका परिचय : वैदिकेतर काल में वाणी का वैज्ञानिक आधार पर विश्लेषण प्रस्तुत किया गया है । अक्षर, शब्द, वाक्य, साहित्य तथा ध्वनि ये सभी वाणी के क्षेत्र में आते हैं। इसी वाणी को वाक्, गिरा आदि नामों से जाना जाता है । ऋग्वेद में वाणी के लिए वाक् का प्रयोग मिलता है तथा गीः का भी प्रयोग मिलता है । वाणी की उत्पत्ति के विषय में विद्वानों में मत-भेद है । एक विचार-धारा के अनुसार इस वाणी का स्रोत मनुष्य है तथा एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी तक विचार-विनिमय के माध्यम से इस का प्रचार एवं प्रसार होता रहा है । एक दूसरे विचार-धारा के अनुसार इस वाणी की उत्पत्ति देवी है। वाणी भाषा के रूप में विकसित होती है । भाषा-वेत्ता तदर्थ कतिपय सिद्धान्तों का प्रतिपादन करते हैं। उन सिद्धान्तों में एक सिद्धान्त मुख्यरूप से भाषाविकास को दो भागों में विभक्त करता है (१) भाषा ईश्वर द्वारा बनाई गई है। (२) भाषा विकास का परिणाम है । प्रथम सिद्धान्त के अनुसार भाषा पृथ्वी पर ईश्वर की कृपा के परिणामस्वरूप आई । इस के विपरीत दूसरा मत इस का खण्डन करता है। इस का कथन है कि भाषा पृथिवी पर मनुष्यों के प्रयत्नों के परिणाम स्वरूप जन्मी तथा इस की उत्पत्ति तथा विकास में ईश्वर का कोई हाथ नहीं है। धार्मिक ग्रंथ प्रथम सिद्धान्त की पुष्टि करते हैं तथा ऐसे ग्रंथों में ऋग्वेद तथा ब्राह्मण ग्रंथ प्रमुख हैं। नीचे ऋग्वं. दिक तथा ब्राह्मणिक सिद्धान्तों का संक्षिप्त विवेचन प्रस्तुत किया गया है ।
२. ऋग्वैदिक सिद्धान्त : ऋग्वेद-(१०.७१) में वाक् स्वयं अपने स्वरूप को अभिव्यक्त करती है। इस सूक्त में ११ मंत्र हैं तथा इस सूक्त के प्रथम चार मंत्रों में वाणी के उत्पत्ति का वर्णन है । एक मंत्र में वर्णित है कि बृहस्पति प्रथम वाक् है तथा उस से अन्य पदार्थों के लिए अन्य शब्दों की उत्पत्ति हुई :
बृहस्पते प्रथमं वाचो अग्रं यत् प्रेरत नामधेयं दधानाः ।
यदेषा श्रेष्ठं यदरिप्रमासीत् प्रेरणा तदेषां निहितं गुहाविः ॥' १. मैक्स मूलर, साइन्स ऑफ लैंग्वेज (वाराणसी, १९६१), पृ० ४ २. आई० जे० एस० तारापोर वाला, एलिमेण्ट्स ऑफ द साइन्स ऑफ लैंग्वेज
(कलकत्ता, १९५१), पृ० १०-११ ३. ऋग्वेद, १०.७१.१