Book Title: Sanskrit Sahitya Me Sarasvati Ki Katipay Zankiya
Author(s): Muhammad Israil Khan
Publisher: Crisent Publishing House

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Page 120
________________ संस्कृत-साहित्य में सरस्वती को कतिपय झाँकियाँ के पति हैं तथा दोनों का उत्पत्ति से सम्बन्ध है । बृहस्पति मंत्रों का स्वामी है । उपनिषदों में उसे ब्रह्मन् कहा गया है, जो मंत्रों का अधिष्ठाता है । वाचस्पति" वाक् का स्वामी अथवा वाणी-स्वरूप है तथा ब्राह्मणों में यह बारम्बार आया है । यह वाचस्पति बृहस्पति, ब्रह्मणस्पति तथा ब्रह्मन् का पर्याय है । वाक् का तादात्म्य कभी-कभी जलों से पाया जाता है । ये संसार की उत्पत्ति के प्रथम तत्त्व हैं । प्रजापति जब सृष्टि करना चाहते थे, तो सर्वप्रथम उन्होंने जलों को उत्पन्न किया । तदनन्तर अन्य वस्तुएँ उनसे उत्पन्न हुईं । वाक् इस प्रकार जलों की प्रतिनिधित्व करती है तथा वह उत्पत्ति - कर्त्ता की इच्छा है, क्योंकि उसकी इच्छा वाणी (वाक् ) में प्रस्फुटित हुई है ।" ऊपर वाक् का जलों से तादात्म्य दिखाया गया है । वेदों में सरस्वती जल तथा देवी - दोनों के रूपों को धारण करती है । वह सर्वप्रथम एक नदी थी, परन्तु कालान्तर में देवी बन गई। देवी के रूप में भी वह जल का प्रतिनिधित्व करती है । वेदों में उसे 'बादलों में सरस्वती' कहा गया है । इस प्रकार वह माध्यमिका वाक् है, जिसमें जल तथा विद्युत् का भाव सन्निहित है । कभी-कभी वाक् का तादात्म्य प्रजापति, विश्वकर्मा, सम्पूर्ण संसार तथा इन्द्र से प्राप्त होता हैं ।" शतपथ ब्राह्मण में एक कथा वर्णित है, जिसमें प्रजापति को सृष्टि के लिए इच्छुक प्रदर्शित किया गया है। उसने इस स्थिति में अपने मस्तिष्क से वाक् को उत्पन्न किया तथा पुनः उससे जलों को उत्पन्न किया । इस सन्दर्भ से उनमें लैङ्गिक सम्बन्ध था । " यह प्रसङ्ग काठक- उपनिषद् में भी आया है : "Prajapati was this universe. Vach was a second to him. He associated sexually with her; she became pregnant; she departed from him; she produced these creatures. She again entered into Prajapati." इस प्रकार प्रजापति सृष्टि का स्रोत है और वाक् सृष्टि के पाँच तत्वों में से एक हैं एवं वह प्रजापति की महत्ता को सूचित करती है ।" हमने पहले 'सरस्वती की पौराणिक उत्पत्ति', 'सरस्वती का पौराणिक नदी- रूप' तथा 'पुराणों में सरस्वती की १४ १०२ १०. ऐतरेय ब्राह्मण, ५. २५; शतपथ ब्राह्मण, ४.१.१.६, ५.१.१.१६; तैत्तिरीयब्राह्मण, १.३.५.१;३.१२.५.१; तैत्तिरीय प्रारण्यक, ३.१.१ इत्यादि । ११. ए० बी० कीथ, द रिलीजन एण्ड फिलासोफी ऑफ द वेद एण्ड उपनिषद्, भाग २ ( लण्डन, १९२५), पृ० ४३८ १२. वही, पृ० ४३८ १३. जॉन डाउसन, ए क्लासिकल डिक्शनरी ऑफ हिन्दू माइथालोजी ( लण्डन, १९६१), पृ० ३२९-३३० १४. वही, पृ० ३३० १५. वी० एस० अग्रवाल, 'क' प्रजापति, जर्नल ऑफ बड़ौदा इन्स्टीच्यूट, भाग ८, न० १ ( बड़ौदा, १९५८), पृ० १-४

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