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ब्रह्मा और सरस्वती के मध्य पौराणिक प्रेमाख्यान
के व्यक्तित्व में मिल गया है । यह ब्रह्मा पौराणिक त्रिक में सर्वोपरि हैं। समयानुसार वाक् में भी परिवर्तन हुआ और इसका नाम सरस्वती पड़ गया। यदि यह पौराणिक कथा इस प्रकाश में देखी जाये, तब तो उससे सम्बद्ध अनेक भ्रान्तियाँ दूर हो जायेंगी। सायणाचार्य ने युक्त ही कहा है :
_ "कामं यथेच्छं कृण्वाने कुर्वाणे पितरि प्रजापतौ युवत्यां दुहितर्युषसि दिवि वा। 'दिवमित्यन्ये इति हि ब्राह्मणं प्रदर्शितम् । मध्या तयोर्मध्येऽन्तरिक्षमध्ये वा अमीके समीपे यत्कत्वं कर्माभवत् मिथुनीभावाख्यं तदानों मनानक अल्पं रेतं जहतुः व्यक्तवन्तौ । किं कुर्वाणावीति तत्राह । वियन्तो परस्परमभिगच्छन्तौ । प्रजापतिना सानो समुच्छिते स्थाने सुकृतस्य यज्ञस्य यौनौ निषिक्तमासीदित्यर्थः । ततो रुद्र उत्पन्न इत्यर्थः ।"
वैदिक तथा पौराणिक साहित्य रहस्यों तथा प्रतीकों से भरे पड़े हैं । तत्तत् साहित्य की वस्तुएँ उस रूप में वर्णित हैं, क्योंकि उन-उन साहित्य में विचारों की धनाढयता है । विचारों की धनाढ्यता के कारण प्रकृत सन्दर्भ को कई दृष्टियों से देखना होगा। कुछ विद्वानों के मतानुसार इस उपकथा में ज्योतिष-विद्या-सम्बन्धी घटनाओं का मेल है । उदाहरण के रूप में यहाँ 'procession of vernal equinox' है, जो पाक्षिक संवत्सर का प्रारम्भ है । प्रजापति का व्यभिचार नये वर्ष की विपरीत गति (retrograde motion of new year) का प्रतीक है । वर्ष (प्रजापति) पूनर्वस से मृगशिरस् को चला गया। इसी को आलङ्करिक रूप से व्यभिचार की संज्ञा दी गई है । २३
इसी वैदिक उपकथा का वर्णन यहाँ पौराणिक परिवेश में हुआ है । हमें इस कथा का समाधान ऊपर के व्याख्यानों के प्रकाश में देखना होगा।
__इस उपकथा के द्वारा हमें एक सीख भी मिलती सी दीखती है । यहाँ हम अथर्ववेद का एक उदाहरण प्रस्तुत कर सकते हैं । अथर्ववेद में इन्द्र तथा मरुतों को कृषकों के रूप में प्रस्तुत किया गया है । यह उदाहरण कृषि-कर्म को उत्तम घोषित करता है ।२४ इससे हमें यह शिक्षा भी मिलती है कि अपने वंश तथा वर्ण का अभिमान छोड़ कर कृषि-कर्म करने में लज्जा का अनुभव नहीं करना चाहिए। इसी प्रकार जब ब्रह्मा ने अपनी पुत्री के साथ व्यभिचार किया, तब उन्होंने अपनी तपस्या की महत्ता खो दी। फलतः उन्होंने तपस्या की। इससे शिक्षा मिलती है कि यदि किसी से कभी कोई त्रुटि हो जाय, तो उसका परिष्कार करना अथवा पश्चाताप करना अनुचित नहीं है।
२२. तु० सायण की व्याव्या ऋ० १०.६१.६ २३. वी० वी० दीक्षित; पूर्वोद्धृत ग्रंथ, पृ० ६६ २४. तु० श्रीपाद दामोदर सातवलेकर, अथर्ववेद-सुबोध भाष्य, भाग २ (सूरत,
१९६०), पृ० ६१