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संस्कृत-साहित्य में सरस्वती की कतिपय झाँकियाँ
वाचं दुहितरं तन्वीं स्वयम्भूहरति मनः । अकामां चक्रमे सक्तः सकाम इति नः श्रुतम् ॥"
२. समस्या का समाधान : अन्वेषण से ज्ञात होता है कि पुराणों में अनेक आलङ्कारिक वर्णन हैं । आलकारिक वस्तुओं के वर्णन का समाधान उचित व्याख्या के विना नहीं हो सकता । इस कथन की पुष्टि के लिए हम कुछ उदाहरणों को प्रस्तुत कर सकते हैं। रामायण में वर्णित है कि कौशल्या पुत्रेष्ठि के समय सम्पूर्ण रात्रि एक अश्व के साथ सोई । अश्व एक पशु है । यह पशु अपनी भौतिक सत्ता के विपरीत शक्ति का प्रतीक है । वस्तुतः रानी ने अश्व की सङ्गति का आनन्द नहीं लिया, अपितु उस शकिा के साथ विभिन्न रूप से खिलवाड़ किया, जिसका प्रतीक अश्व है। इसी प्रकार पुराणों में वर्णित है कि इन्द्र ने पार्थिवी मरणशील स्त्री प्रहल्या की सङ्गति के आनन्द का भोग किया । अहल्या का अर्थ है-अह्ना यम्यते, अहो यमति वा सा अर्थात् अहल्या वह है, जो दिन के साथ व्यतीत हो । इस प्रकार यहाँ रात्रि अर्थ में तात्पर्य है । गोतम अहल्या के पति हैं। अब यहाँ इन्द्र के साथ गोतम का अर्थ जानना आवश्यक है। गोतम पृथिवी से निकलने वाली कृष्ण वर्ण की किरणों का प्रतिनिधित्व करते हैं । इन्द्र प्रकाश के प्रतीक हैं तथा चन्द्रमा दो पंख वाले पक्षी का प्रतिनिधित्व करता है । इसकी निम्नलिखति प्रकार से व्याख्या की जा सकती है।
दिन में प्रकाश चारो ओर फैला हुआ होता है । रात्रि के आगमन पर यह ऊपर चला जाता है। इस प्रकार जब प्रकाश का देवता ऊपर चला गया, तब उसने चन्द्रमा की सहायता ली, जिसे आलङ कारिक रूप से एक पक्षी कहा गया है । इस कथा को एक अन्य विधि के साथ वर्णित किया जा सकता है । रात्रि में (अहल्या) प्रकाश (इन्द्र) दो पक्षीय पक्षी (चन्द्रमा) के द्वारा पृथिवी (गोतम) पर प्रसृत होता है।
. इन दो उदाहरणों के आधार पर ब्रह्मा तथा सरस्वती की कथा को समझा जा सकता है । ब्रह्मा तथा सरस्वती की उपकथा का बीज ऋग्वेद में उपलब्ध होता है ।
कामस्तदने समवर्तताधि मनसो रेतः प्रथमं यदासीत् सुष्टि के आदि में ब्रह्मा अपने को विभिन्न रूपों में प्रकट करना चाहते थे। उनकी इच्छा 'काम' कही गई है । यह काम मन से प्रभावित है । वेदों तथा पुराणों में मन को प्रजापति कहा गया है । इस कहावत को पुराणों में अत्यन्त प्रसिद्धि मिली है, फलतः कुछ ब्राह्मणों में मन को बहुशः प्रजापति
११. भागवतपुराण, ३.१२.२८ १२. श्रीअरविन्दो, ऑन द वेद (पाण्डिचेरी, १९५६), पृ० १०४-१०५ १३. ग्रीफिथ् की टिप्पणी ऋग्वेद ७.३: "The mind : meaning
Prajapati."