Book Title: Sanskrit Sahitya Me Sarasvati Ki Katipay Zankiya
Author(s): Muhammad Israil Khan
Publisher: Crisent Publishing House

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Page 104
________________ ८६ संस्कृत-साहित्य में सरस्वती की कतिपय झाँकियाँ वन्ति ।" स्पष्टतः यहाँ उषा तथा प्रकाश का वर्णन है, जिनका पारस्परिक सम्बन्ध हमें एक दैहिक सम्बन्ध जान पड़ता है । इस सम्बन्ध में ऋग्वेद के दशम मण्डल के तीनों मंत्रों का अवलोकन अपरिहार्य जान पड़ता है ।' यहाँ रुद्र को रुद्र कहा गया है तथा वह रुद्र रुद्र को उत्पन्न करता है । इस कथन का अभिप्राय बहुत कुछ अस्ष्ट है । अर्थ की अन्विति के लिए उचित व्याख्या की नितान्त आवश्यकता है, अत एव इसकी व्याख्या इस प्रकार की गई है कि रुद्र प्रजापति है, अर्थात् प्रजापति सन्तति का स्वामी है ( प्रजानाम् + पतिः) । जहाँ यह कहा गया है कि रुद्र रुद्र को उत्पन्न करता है, तब इसका अभिप्राय यह है कि प्रजापति (रुद्र) ने देवों को उत्पन्न किया। रेतस् का अर्थ कर्म है तथा इस कर्म के द्वारा उत्पन्न रुद्र या तो दिन है अथवा उषा है। इस कथा द्वारा संसार तथा प्राणियों की सृष्टि की आदि अवस्था का बोध होता है । प्रारम्भावस्था में केवल प्रजापति था और जब उसने सृष्टि की आकांक्षा की, तब उसने सबसे पहले अपने में से ही देवों को उत्पन्न किया । इस सृष्टि के पूर्व चारो ओर अंधकार ही अंधकार था । उसने अंधकार को दूर किया । अंधकार को दूर करने का अभिप्राय सृष्टि करना है । एतदर्थ उसने अपने को अनेक भागों में विभक्त किया । ये सभी भाग देव हैं तथा ये देवगण भी प्रजा पति हैं । कहा जाता है कि आदित्य बारह हैं तथा रुद्र ग्यारह हैं । यह विभाजन लगभग समान है । इस प्रकार रुद्र तथा प्रजापति एक हैं और देवता उसकी सन्तति हैं, जिन्हें उसने दिन अथवा उषा के गोद में पैदा किया। जब तक अंधेरा था, तब तक कुछ भी पैदा नहीं हुआ तथा प्रकाश ही वस्तुओं अथवा पदार्थों के समुत्पादन में समर्थ था । प्रतीकात्मक रूप से दिन अथवा उषा शक्ति का प्रतिनिधित्व करते हैं, जिसके आधार पर वस्तुएँ अस्तित्व में आईं । I इस उपकथा का वर्णन एक भिन्न प्रकार से भी किया जा सकता है । वैदिक विषय नितान्त गूढ तथा रहस्यमय हैं तथा एक ही समय में उनके भिन्न-भिन्न अर्थ किये गये हैं । यही कारण है कि किसी विषय के प्रतिपादन में अनेक शैलियों की सहायता ली गई है तथा अनेक सिद्धान्तों तथा पथों ने जन्म ले लिया है । वैदिक वाङ् मय के अध्ययन से हम इस निष्कर्ष पर पहुँचते हैं कि सांसारिक पदार्थ तथा प्राणिजात अनेक देवों के अंशों से उत्पन्न हुए हैं । हम इस सम्बन्ध में ऐतरेय उपनिषद् को उद्धृत कर सकते हैं । इसका कथन है कि विभिन्न देव अपने स्थूल रूप से विभिन्न लोकों अथवा स्थानों में निवास करते हैं, परन्तु अपने सूक्ष्म रूप से सांसारिक पदार्थों अथवा वस्तुओं में निवास करते हैं । "अग्निर्वाग्भूत्वा मुखं प्राविशत् । वायुः प्राणो भूत्वा नासिके प्राविशत् । आदित्यश्चक्षुर्भूत्वा अक्षिणी प्राविशत् । दिशः श्रोत्रं भूत्वा कर्णौ प्राविशन् । ओषधिवनस्पतयो लोमानि मूत्वा त्वचं प्राविशत् । चंद्रमा मनो भूत्वा हृदयं प्राविशत् । मृत्युरपानो भूत्वा ६. वही, १६.६१.५-७

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