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ब्रह्मा और सरस्वती के मध्य पौराणिक प्रेमाख्यान
ब्रह्मा प्रेमातुर होकर अपनी ही पुत्री के साथ बलात्कार किया, यह उपकथा पुराणों में पूर्ण रूप से विकसित हुई है । वेदों में प्राकृतिक उपादान के रूप में इस कथा का वर्णन भिन्न प्रकार से हुआ है । यहाँ इन वैदिक स्रोतों की ओर यथा-स्थान वर्णन हुआ है। पौराणिक इस कथा का वर्णन बहुत कुछ अस्पष्ट है, परन्तु फिर भी इसकी विशेषताएँ हैं । इसका वर्णन विभिन्न पुराणों में कई स्थलों पर हुआ है । इसका एक संक्षिप्त विवेचन निम्नलिखित है ।
ब्रह्मा तथा सरस्वती के मध्य यह कथा एक आलङ्कारिक रूप में वर्णित है । इस कथा के द्वारा यह दिखाया गया है कि ब्रह्मा ने एक पिता होते हुए भी अपनी पुत्री के साथ बलात्कार किया । कतिपय अन्य पुराणों की अपेक्षा मत्स्यपुराण में तथाकथित कथा का विस्तृत वर्णन है । इस पुराण में वर्णित है कि सरस्वती ब्रह्मा के अर्थ शरीर में उन की पुत्री के रूप में उत्पन्न हुई। इसका शरीर अत्यन्त सुन्दर तथा मुग्धकारी था । जब ब्रह्मा ने सरस्वती को देखा, तब वह उस पर अत्यन्त मुग्ध हो गये और उसके सौन्दर्य की प्रशंसा करते हुए बोले "ओह ! कितना सुन्दर रूप है", "ओह ! कितना सुन्दर रूप है ।" ब्रह्मा ने अपने ये औपन्यासिक वचन स्वयं अपने मानस पुत्रों की उपस्थिति में कहा । फलतः सरस्वती ने अतीव लज्जा का अनुभव किया । वह अत्यन्त पश्चाताप में ब्रह्मा के चारो ओर प्रदक्षिणा करने लगी । ब्रह्मा प्रेमातुर थे, अत एव उन्हें कुछ भी शोक नहीं हुआ । वह निरन्तर निर्निमेष दृष्टि से अपनी पुत्री को निहारना प्रारम्भ कर दिया । पुत्री के प्रदक्षिणा करने पर वह चतुर्मुखधारी हो गये, जिससे पुत्री को निरन्तर देख सकें । तदनन्तर सरस्वती पश्चाताप एवं लज्जावश स्वर्ग की ओर बढ़ने लगी । ब्रह्मा तब भी शान्त नहीं हुए। वे पुनः पाँच मुखों वाले हो गये, जिससे पञ्चम मुख द्वारा सरस्वती को स्वर्ग जाते हुए भी देख सकें । अन्ततोगत्वा ब्रह्मा ने सृष्टि का कार्य अपने पुत्रों को सौंप दिया और सरस्वती से विवाह कर लिया, जो सैकड़ों रूपों की राशि (शतरूपा ) थी । इस प्रकार ब्रह्मा कमल - मन्दिर में रहते हुए एक सौ साल तक सरस्वती के साथ सम्भोग किया । "
इस पुराण से स्पष्ट नहीं हैं कि ब्रह्मा ने अपनी पुत्री को कैसे वशीभूत किया, जबकि वह अनिच्छुक थी । वस्तुतः ऐसी स्थिति में प्रेम का परिपाक नहीं होता । शास्त्र में प्रतिपादित हैं कि प्रेम का परिपाक स्त्री तथा पुरुष दोनों के समान इच्छुक
१. मत्स्यपुराण, ३.३०; तु० वामनपुराण, २७.५