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संस्कृत-साहित्य में सरस्वती की कतिपय झाँकियाँ
किया है । इसके अतिरिक्त यह कहा जाता है कि यह पक्षी सदैव स्वच्छ जल तथा कमल वाले जलाशयों में रहता है । वर्षा-काल में जलाशयों का जल मलिन हो जाने पर भारत के भू-भागों को छोड़कर मानसरोवर को चला जाता है। यह अर्थ सामान्यरूप से इसी प्रकार, परन्तु विशेष-रूप से अध्यात्म-भाव का बोधक है । इन अर्थों की गहराई में जाना प्रकृत विषय के मार्ग से च्युत होना है, अत एव इसे यहीं छोड़कर शीर्षक की सरणि ली जा रही है।
हम ने पहले बताया है कि यह पक्षी ब्रह्मा, सरस्वती तथा कतिपय अन्य देवों तथा देवियों के साथ जुड़ा हुआ है, अत एव विशेष-भाव का प्रतिपादन हमारी खोज
और अन्यों की जिज्ञासा का विषय है। यह पक्षी दैवत्वापन्न समझा जाता है और यही कारण है कि इसे विष्णु के अवतारों में से गिना जाता है। प्रपञ्चसार, पटल ४ में इस सम्पूर्ण संसार को हंसात्मक कहा गया है । यह कथन दार्शनिक परिप्रेक्ष्य में है, जिसके अनुसार सम्पूर्ण संसार हंस-स्वरूप अथवा हंसमय है । यह संसार हंसस्वरूप अथवा हंसमय क्यों है, इसे निम्नलिखित कथन के सन्दर्भ से ही भली-भाँति जाना जा सकता है । यहाँ संसार का तात्पर्य व्यक्ति, व्यक्ति-समूह तथा उन सब के साथ जगत् तथा जागतिक पदार्थों की अन्विति है । इस प्रकार हंस के अर्थ से इन सब भावों का अर्थ ग्रहण करना चाहिए । हंस का भाव इस प्रकार है :
___I am that'-जो इस प्रकार के समीकरण की भावना रखता है और संसार-भय को खो देता है, वह हंस है । इस अर्थ की परिकल्पना में हंस का विग्रह 'अहम्' तथा 'सः' करना होगा या किया गया है । यहाँ 'अहम्' 'जीवात्मा' तथा 'सः' परमात्मा अथवा ब्रह्म का ज्ञापक है । यह हंस सरस्वती का वाहन है, अत एव इसी परिप्रेक्ष्य में सरस्वती की आध्यात्मिकता अथवा उससे सम्बद्ध पक्षों पर विचार करना चाहिए । पुराणों में सरस्वती के अध्यात्म पक्ष को कई स्थलों पर उभारा गया है । वह व्यक्तिगत रूप से तीनों संसारों, तीनों वेदों, तीनों अग्नियों, तीनों गुणों, तीनों अवस्थाओं और सम्पूर्ण तन्मात्राओं का प्रतिनिधित्व करती है । इस प्रकार वह संसार के निर्माण सम्बन्धी सभी तत्त्वों का साक्षात् मूर्त-रूप है।९।
१९. वृन्दावन सी० भट्टाचार्य, इण्डियन इमेजेज, भाग १ (कलकत्ता), पृ० १३ २०. मोनियर विलियम्स, ए संस्कृत-इङ्गलिश डिक्शनरी (आक्सफोर्ड, १८७२),
पृ० ११६३ "The vehicle of Brahma (represented as borne on a Hansa); the Supreme Soul or Universal Spirit (=Brahman : according to Say. on Rig-Veda IV. 40.5 in this sense derived either fr. rt. 1. han in the sense 'to go' i. e., 'who goes eternally', or resolvable into aham sa I am that, i. e., the
Supreme Being)" २१. वामनपुराण, ३२.१०-१२; स्कन्दपुराण, ६.४६.२६-३०