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पुराणों में सरस्वती की प्रतिमा
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निर्देश होता है । द्विहस्ता होने पर उनके एक हाथ में वीणा तथा दूसरे में पुस्तक सुशोभित है । मत्स्यपुराण में सरस्वती की मूर्ति-प्रक्रिया का विधान करते समय बताया गया है कि ब्रह्मा की भाँति उनकी मूर्ति चार हाथों वाली (चतुर्हस्ता) होनी चाहिए।' अग्निपुराण की भी यही मान्यता है । चारो हाथों में क्रमशः पुस्तक, अक्षमाला, वीणा एवं कमण्डलु होने का विधान है। विष्णुधर्मोत्तरपुराण में एतद्विषयक कई प्रसङ्ग आए हैं। एक स्थान पर उनको चार हाथों वाली बताते हुए कहा गया है कि उनके दोनों दाहिने हाथों में क्रमश: पुस्तक एवं अक्षमाला हैं; दोनों बायें हाथ कमण्डलु एवं वीणा से सुशोभित हैं। एक अन्य स्थल पर भी उनके चतुर्हस्ता होने का सङ्केत मिलता है, परन्तु हस्तधारित प्रतीकों (पदार्थों) का क्रम बदला हुआ है । इस परिवर्तितावस्था में उनके दोनों दाहिने हाथों में क्रमशः अक्षमाला एवं त्रिशूल हैं तथा बायें हाथों में पुस्तक एवं कमण्डलु हैं । यहाँ वीणा की अनुपस्थिति दिखाई गई है और त्रिशूल ने उसका स्थान ग्रहण कर लिया है। एक अन्य स्थल पर उन्हें चार हाथों वाली बताया गया है । जैसे पूर्व-कथित प्रसङ्ग में त्रिशूल ने वीणा का स्थान ग्रहण कर लिया है, तद्वत् यहाँ वीणा पर 'वैणवी' की आक्षिप्ति हुई है। डॉ० क्रमरिश ने वैणवी का अर्थ वैष्णवी किया है। वैणवी का अर्थ-बाँस से निर्मित वीण-दण्ड है-ऐसा डॉ. प्रियबाला का मत है।"
सरस्वती को जबकि प्रकृति के पाँच रूपों- 'दुर्गा, राधा, लक्ष्मी, सरस्वती एवं सावित्री' में से एक माना गया है, उस अवस्था में भी उनको चतुर्हस्ता बताया गया है । वायुपुराण में तद्वत् उनको 'प्रकृतिगौंः' कहा गया है । वहाँ वह चार मुख, चार सींग, चार दाँत, चार नेत्र एवं चार भुजाओं वाली बताई गई हैं। चूंकि वह स्वयं प्रकृति गौ हैं, अत एव उन्हीं के प्रभाव से सभी पशुओं के चार पगों एवं चार स्तनों वाली होने का कारण माना गया है।"
१. मत्स्यपुराण, २६१. २४ २. अग्निपुराण, ५०. १६ ३. डॉ० प्रियबाला शाह, पूर्वोद्धृत ग्रन्थ, पृ० २२५ ४. वही, पृ० २२७ ५. वही, पृ० १५४ ६. वही, फूट नोट-१, पृ० १५४ ७. वही, पृ० १५४ ८. ब्रह्मवैवर्तपुराण, २. १. १ आमे ६. वायुपुराण, २३. ४४-४५ १०. वही, २३.८८