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पुराणों में सरस्वती की प्रतिमा
यदि यों कहा जाय कि संस्कृत-साहित्य में सरस्वती को देवीरूप में प्रतिष्ठा शताब्दियों पश्चात् मिली है, तो अत्युक्ति न होगी। ऋग्वैदिक काल में उसका जो भी पार्थिव रूप उपलब्ध है, वह है नदी। ब्राह्मण-कालीन उसके चरित्र की प्रमुख विशेषता वाणी से तादात्म्य है : 'वाग्वं सरस्वती', परन्तु पौराणिक काल आते-आते उसकी मूर्तिवत्ता में पर्याप्त परिवर्तन हो गया है । यही कारण है कि पुराणों ने उसके प्रतिमा-निर्माण की अनेक विधियाँ निर्धारित कर रखी हैं । उनका अवलोकन ही प्रस्तुत लेख का विषय है।
१. सरस्वती की मूर्ति निर्माण-विधि : पुराणों में न केवल सरस्वती का, अपितु अनेक देवी-देवों के प्रतिमाविद्यासम्बन्धी विधान यत्र-तत्र उपलब्ध होते हैं। इस दृष्टि से अग्नि, मत्स्य तथा विष्णुधर्मोत्तर पुराण प्रमुख रूप से उल्लेखनीय हैं । अग्निपुराण के ४९-५० अध्याय विविध देवियों एवं देवों की मूर्ति-विधियों का ही प्रतिपादन करते हैं । ४६वें अध्याय में ब्रह्मा की मूर्ति-विधि प्रतिपादित करते समय बताया गया है कि सरस्वती की मूर्ति उनके बायें तथा सावित्री की दक्षिण भाग में स्थापित होनी चाहिए
'आज्यस्थाली सरस्वती सावित्री वामदक्षिणे' ।'
१. तुलनीय ऋग्वेद, १.३.१२; २.४१.१६, ३.२३.४, ५.४२.१२, ४३.११;
६.५२.६, ७.३६.६, ६६.१-२; ८.२१.१७-१८, ५४.४;
१०.१७.७, ४६.६, ७५.५ इत्यादि । २. शतपथब्राह्मण, २.५.४.६; ३.१.४.६,१४; ६.१.७,६; ४.२.५.१४, ६.३.३;
५.२.२.१३-१४, ३.४.३, ५.४.१६; ७.५.१.३१; ६.३.४.१७;
१३.१.८.५, १४.२.१.१२ । तैत्तिरीयब्राह्मण, १.३.४.५, ८.५.६; ३.८.११.२ ऐतरेयब्राह्मण, २.२४; ३.१-२, ३७; ६.७ ताण्ड्यमहाब्राह्मण, १६.५.१६ गौपथब्राह्मण, २.१.२०
शाङ खायनब्राह्मण, ५.२; १२.८; १४.४ ३. अग्निपुराण, ४६.१५