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सरस्वती का पौराणिक नदी-रूप
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'लेटर' का अर्थ 'अर्थन्दव' (अफ़गानिस्तान की एक नदी का नाम) तथा 'हेलमन्द' (इस अफ़गानिस्तानी नदी का इरानियन नाम हरक्वैती) से भी व्यक्त होने लगेगा' तथा पूर्वी तन्नामक किसी नदी अथवा स्रोत से भी। ___इस नदी का निश्चिकरण 'विनशन' के आधार पर करना अधिक युक्त प्रतीत होता है । 'विनशन' वह स्थान है, जहाँ सरस्वती लुप्तप्राय हो गई । यह स्थान जिला पटियाला में पड़ता है । लुप्त होने के पूर्व इसकी गति में 'स्खलन' एवं 'विकृतिप्राय' आ चुकी थी। इसकी गति स्थान-स्थान पर अवरुद्ध हो चुकी थी तथा कई स्थानों पर गहरे जलकुण्ड बन चुके थे । 'सरस्वती तु पञ्चधा सम्भवतः इसी ओर सङ्कत करता है। कुछ लोगों के विचार से इसके द्वारा ‘पाँच सरस्वती' (सामान्य अर्थ में पाँच नदियों) का बोध माना गया है। पुराणों में सरस्वती की एतत्सम्बन्धी गति का बड़ा सुन्दर सङ्कत 'दृश्यादृश्यगतिः' द्वारा किया गया है । सरस्वती जब मरणासन्न अवस्था में दिखाई देती थी, तब 'दृश्यगतिः' थी और जब छुप जाती थी, तब 'अदृश्यगतिः' । पुराणों के अनुसार भी सरस्वती का पूर्वकथित मार्ग रहा है । वह हिमालय से निकल कर 'प्लक्ष प्रास्रवण' से होती हुई मैदानों में आती है । सर्वप्रथम आद-बद्री आती है।
१. तु० आनन्द स्वरूप गुप्त, पूर्वोद्धृत ग्रन्थ, पृ० ७७ २. मैक्स म्यूलर, पूर्वोदधृत ग्रन्थ, भाग-१४ (दिल्ली, १९६५), पृ० २, फूट नोट ८ ३. यजुर्वेद, ३३।११ ४. रे चौधुरी, एच. सी., पूर्वोद्धृत ग्रन्थ, पृ० ४७२ ५. आनन्द स्वरूप गुप्त, पूर्वोद्धृत ग्रन्थ, पृ० ७६ ६. वामनपुराण, ३२।३; तथा डॉ० दिनेश चन्द्र सरकार, 'टैक्ट्स ऑफ द पुराणिक लिस्ट ऑफ रीवर्स',द इण्डियन हिस्टारिकल क्वार्टरली, भाग-२७, न०३, पृ० २१६, “Sarasvati rises in the Sirmur hills of the Siwalik ranges in the Himalayas and emerges into the plains at Ad-Badri in the Ambala District, Punjab. at disappears once at Chaiaur, but reappears It Bhawanipur; then it disappears at Balchappar but again appears at Bara-Khera...' इस सिरमूर से निकलने वाली सरस्वती तथा वैदिक सरस्वती को दो (तु० आनन्द स्वरूप गुप्त, पूर्वोद्धृत, ग्रन्थ, पृ० ७६) मानना ठीक नहीं । दोनों एक हैं (तु० डॉ० दिनेश चन्द्र सरकार, पूर्वोद्धृत ग्रन्थ, पृ० २१६) ७. डॉ० ए.बी.एल. अवस्थी, पूर्वोद्धृत ग्रन्थ, पृ० १५३; तथा तु० स्कन्दपुराण, ७।३३।४०-४१
"सतो विसृज्य तां देवी नदीभूत्वा सरस्वती ॥ हिमवतं गिरिं प्राप्य प्लक्षात् तत्र विनिर्गता।
अवतीर्णा धरापृष्ठ.........................॥" ८. डॉ. दिनेश चन्द्र सरकार, पूर्वोद्धृत ग्रन्थ, पृ० २१६