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संस्कृत-साहित्य में सरस्वती की कतिपय झांकियाँ
में कच्छ में प्रविष्ट हो गया है।'
___ यह सरस्वती का आधुनिक मार्ग है, जिसे हम पौराणिक दृष्टि से देखना चाहेंगे । यहाँ एक मूल बात ध्यान देने की है, जो भूतत्वीय-शिला पर आधारित है। भूतत्ववेत्ताओं का कथन है कि प्राचीन काल में समस्त राजस्थान समुद्र के गर्भ में था। यहाँ एक विशाल समुद्र हिलोरें भरता था, जिसका नाम 'राजपुताना का समुद्र' था। इसके दक्षिण की दिशा में अरावली की पहाड़ियाँ थीं, जो सुदूर पूर्व एवं पश्चिम तक फैली हुई थीं और लगभग चार मील ऊँची थीं। उन दिनों हिमालय-पर्वत इतना ऊँचा नहीं था, जितना कि आज हम देखते हैं । वह उन दिनों पृथ्वी के गर्भ से उठा रहा था। प्रकृति-निर्माण-काल में जब उथल-पुथल प्रारम्भ हुई, तब भारत का सर्वोच्च पर्वत 'अरावली' धाराशायी हो गया। उसके अवशेष चारो ओर बिखर गये। अधिकांश अवशेष राजपुताने के समुद्र में जा गिरा । परिणामस्वरूप इस समुद्र में गिरने वाली नदियों की दिशाएँ बदल गईं । गङ्गा एवं यमुना और पूर्व-दिशा में चली गईं तथा सरस्वती एवं दृषद्वती पश्चिमतर हो गईं। पुराणों में इसका निर्देश प्रकारान्तर से हुआ हैं । यहाँ सरस्वती क्रमशः 'प्राची" एवं पश्चिमाभिमुखी' कही गई है । तात्पर्य यह है कि जब सरस्वती प्राक्-परिवर्तन ‘राजपुताना सागर' में गिरती थी, तब वह 'प्राची' थी, परन्तु जब परिवर्तन के कारण उसकी दिशा बदल गई अर्थात् अरब सागर में गिरने लगी, तब 'पश्चिमाभिमुखी' कहलाई। इस कारण 'प्राची' एवं 'पश्चिमाभिमुखी' सरस्वती एक ही हैं । इसको ‘फार्मर' एवं 'लेटर' कहना चाहिए, न कि इनका तादात्म्य क्रमशः 'सरस्वती' एवं 'सिन्धु' से करना युक्त है। ऐसा करना उचित नहीं होगा, क्योंकि इनके तादात्म्य की सम्भावना विस्तार धारण कर लेगी। ऐसी स्थिति में
१. वही, पृ० २, २०-२१ २. ए. सी. दास, ऋग्वैदिक इण्डिया (कलकत्ता, १९२७), पृ० १७ ३. एन. एन. गोडबोले, पूर्वोद्धृत ग्रन्थ, पृ० ८ ४. वही, पृ० २ ५. पद्मपुराण, ५।१८।२१७-२८।१२३; भागवतपुराण, १०७८।१६ ६. स्कन्दपुराण, ७।३५।२६ ७. ए. ए. मैक्डानेल एण्ड ए.वी. कीथ, वैदिक इण्डेक्स ऑफ नेम्स एण्ड सब्जेक्ट्स,
भाग-२ (मोतीलाल बनारसी दास, दिल्ली, १९५८), पृ० ४२६, “But There are strong reasons to accept the indentification of the later
and the earlier Sarasvati throughout." ८. के. सी. चट्टोपाध्याय, 'ऋग्वैदिक रीवर सरस्वती', जरनल ऑफ द डिपार्टमेन्ट
ऑफ लेटर्स, भाग १५, कलकत्ता; बी. आर. शर्मा द्वारा उनके उद्धृत विचार, द कलकत्ता रिव्यु, भाग ११२, न० १ (१९४५), पृ० ५३ आगे तथा मैक्सम्यूलर, सेक्रेट बुक्स ऑफ द इस्ट, भाग ३२ (दिल्ली, १९६४), पृ० ६०