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संस्कृत साहित्य में सरस्वती की कतिपय झाँकियाँ
दृष्टिगोचर होता है और वह चेतना से कुछ अलग तथा तनिक स्पष्ट होती है । इसको इच्छा - स्वरूप माना जाता है । मध्यमा की दशा में वाणी में तत्काल स्पष्टता आ जाती है । इसमें इच्छा तथा वाणी के मध्य अन्तर स्पष्ट हो जाता है, क्योंकि इस वाणी में व्यक्तता की भावना होती है, परन्तु इन दोनों के आधारों में कोई अन्तर नहीं होता है । इसे एक उदाहरण से समझा जा सकता है । जैसे एक काला घट है । यहाँ घट की सत्ता अलग है और कालापन की सत्ता अलग, परन्तु घट की सत्ता कालापन से रहित नहीं है । यह वाणी का एक स्थूल विवेचन है, जो आत्मचेतना से प्रेरित है । प्रकृतिपरक व्याख्या के आधार पर इसे तीन देवियों से सम्बद्ध पूर्ववत् समझना चाहिए |
एक अन्य मत के अनुसार इडा उस पार्थिव ज्ञान का प्रतिनिधित्व करती है, जो हमारे जीविका का साधन है । मध्यस्थाना वाक् के रूप में सरस्वती शास्त्रोक्त उस ज्ञान का प्रतीक है, जो स्वर्ग तथा उसके परम सुख को मानवजाति के लिए प्रदान करने में समर्थ है । भारती उस स्वर्गी वाणी का ज्ञान - रूप हैं, जिससे 'निर्वाण' की प्राप्ति होती है ।
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सन्दर्भ - संकेत
(१) बाइबिल में सर्वप्रथम ही (१.३) दैवी प्रकाश (ज्ञान) तथा तदनन्तर सृष्टि-प्रक्रिया का वर्णन है। कुरआन में 'वही' द्वारा ज्ञान एवं विवेक की प्रसृति तथा अज्ञान एवं अविवेक का ग्रन्त दिखाया गया है; (२) अहं रुद्रेभिर्वसुभिश्चराम्यहमादित्यैरुत विश्वदेवैः । ग्रहं भित्रावरुणोभा बिभर्म्यहमिन्द्राग्नी अहमश्विनोभा ॥ ऋ० १०.१२५.१, अहं सोमाहनसं विभर्म्यहं त्वाष्टारमुत पूषणं भगम् । अहं दधामि द्रविणं हविष्मते सुप्राव्ये ३ यजमानाय सुन्वते ॥ ऋ० १०.१२५.२; ( ३ ) श० ब्रा० २.५.४.६; ३.१.४.६,१४; ६.१.७.६; ४.२.५.१४, ६.३.२; ५.२.२.१३-१४, ३.४.३ इत्यादि; तं० ब्रा० १.३.४.५; ३.८.११.२; ऐ० ब्रा० २.२४; ३.१-२, ३७; ताण्ड्य ब्रा० २.१.२०; शा० ब्रा० ५.२; १२.८ १४.४; (४) तु० सायणाचार्यकृत श० ब्रा० ११.२.६.३ की व्याख्या: “'अस्य' यज्ञशरीरस्य इमौ 'प्राधारी' मनोवाग्रूपो ज्ञातव्यौ । तौ क्रमेण 'सरस्वांश्च सरस्वती च एतद्वयात्मकौ भवतः । अध्यात्मं तपोरूपासनमाह - स विद्यादिति । मम मनश्च वाक् च सरस्वत्सरस्वती रूपावाधाराविति जानीयादित्यर्थः ।" एतद्विषयक मूलपाठ श० ब्रा० ११.२.६.३ में निम्नलिखित है : " .. ( त्य) अनुकमेवास्म सामिधेन्यः । मनश्चैवास्य व्वाक्वाधारौ सरस्वांश्च सरस्वती च सव्विद्यात्मनश्चैव व्यावचाधारी सरस्वॉश्च सरस्वती चेति । ; (५) तु० श० ब्रा० हिन्दी विज्ञान भाष्य, भाग – २ ( राजस्थान वैदिक तस्व- शोध संस्थान, जयपुर, १६५६), पृ० १३५३; (६) माहेश्वरी ( वा० पु० १.२३.४६ ) ; ( मार्क ० पु० २.२० ); श्रुतिलक्षण (स्क० पु० ७.३३.२२); ब्रह्माणी, ब्रह्मसदृशी ( म० पु० २६१-१४); सर्वजिल्हा ( मार्क ० पु० २३.५७ ); विष्णोजिह्वा (वही, २३.४८ ) ;
ब्रह्मयोनि