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सरस्वती की पौराणिक उत्पत्ति
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तथा सावित्री के रूप में पञ्चधा हो गया । ये प्रकृति के पाँच रूप हैं, जिनमें सरस्वती भी एक प्रकृति रूप है । इन्ही पाँच प्रकृतियों के आधार पर संसार की उत्पत्ति मानी गई है ।'
इस प्रकार पौराणिक सृष्टि - विद्या में सांख्य दर्शन का प्रभाव सुस्पष्ट है । सांख्य में सृष्टि रचना का आधार प्रधान तथा पुरुष दोनों का योग है। उपर्युक्त विवेचन में भी आत्मा, श्रीकृष्ण तथा दुर्गा, राधा, लक्ष्मी, सरस्वती तथा सावित्री (प्रकृति) सृष्टि के दो अनादि तत्त्व हैं, जिनके संयोग से संसार की सृष्टि होती है । प्रकृति निष्क्रिय तथा चेतना - रहित है । पुरुष के सम्पर्क से वह सक्रिय तथा चेतनायुक्त हो उठती है तथा कार्य की जननी (कारण) बन जाती है। पुराणों में सरस्वती को ब्रह्मा तथा विष्णु की पत्नी माना गया है । सामान्यतः कहा जाता है कि देवियाँ देवों की शक्ति की प्रतीक हैं, अर्थात् पति-पत्नी के संयोग का तात्पर्य सृष्टि रचना है । यहाँ ब्रह्मा तथा विष्णु का तादात्म्य दिखाना अनुचित नहीं है । ब्रह्मा को अद्वैत वेदान्त में 'ब्रह्म' संज्ञा
गई है और इसी ब्रह्म को वैष्णव विष्णु से, शैव शिव से तथा शाक्त शक्ति से तादात्म्य करते हैं । पुराणों में सांख्य तथा वेदान्त का समन्वय मिलता है, अर्थात् जिस प्रकार प्रकृति तथा पुरष दो भिन्न तत्त्व नहीं, प्रत्युत् वे दोनों ब्रह्म द्वारा प्रेरित होने पर कार्य-सम्पादन में समर्थ होते हैं, उसी प्रकार ब्रह्मा, विष्णु, कृष्ण तथा सरस्वती भिन्न तत्त्व नहीं । अकार्य - काल में उनकी भिन्न स्थिति दिखाई देती है, परन्तु कार्यकाल में सरस्वती उनकी शक्ति (कारण) कार्य सम्पादनार्थ व्यक्त साधन समझना
चाहिए ।
२. मत्स्य तथा पद्मपुराण :
अनुसार सरस्वती की
मत्स्यपुराण के उत्पत्ति ब्रह्मा से हुई है, जिसने अपने मुख से समस्त वेदों तथा शास्त्रों को उत्पन्न किया । तदनन्तर ब्रह्मा ने मरीचि, अत्रि, अङ्गिरा, पुलस्त्य, पुलह, ऋतु, प्रचेता, वसिष्ठ, भृगु तथा नारद नामक दस मानस पुत्रों की उत्पत्ति की ।" अपनी इस मानस सृष्टि से ब्रह्मा को सन्तोष लाभ नहीं
हुआ, अत एव वह अपने सृष्टि-भार को संभालने की चिन्ता से
गायत्री का जप करने
लगे । फलतः उनके अर्ध शरीर से गायत्री की उत्पत्ति स्त्री रूप
में हुई । इस स्त्री- रूप
१. उपरिवत्, २.१.१ से आगे ।
२. मत्स्यपु० ३.३०-४३
३. ब्रह्मवं० पु० २.२.५६; जॉन डाउसन, क्लासिकल डिक्शनरी ग्रॉफ हिन्दू माइथोलोजी ( लन्दन, १६७१), पृ० २८४-२८५
४. मत्स्यपुराण, ३.२-४
५. उपरिवत्, ३.५-८