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सरस्वती की पौराणिक उत्पत्ति
सरस्वती की उत्पत्ति-विषयक सामग्री भिन्न-भिन्न पुराणों में भिन्न-भिन्न रूपों में पाई जाती है । यह सामग्री कहीं बड़ी अस्त-व्यस्त दशा में है और कहीं बड़े ही सुसंयत रूप में पाई जाती है। सामान्य रूप से पुराणों का प्रमुख वर्ण्य विषय पञ्चलक्षण है, जिसमें सर्ग, प्रतिसर्ग, वंश, मन्वन्तर तथा वंशानुचरित की समाविष्टि पाई जाती है । इन पञ्चलक्षणों में प्राकृत सर्ग--(ब्रह्मसर्ग, भूतसर्ग, वैकारिक सर्ग), वैकृत सर्ग (मुख्य सर्ग, तिर्यक्-सर्ग, देवसर्ग, मानुष सर्ग, अनुग्रह-सर्ग), प्राकृत-वैकृत (कौमार सर्ग) तथा प्रतिसर्ग' (नैमित्तक प्रलय, प्राकृत, आत्यन्तिक प्रलय, नित्यप्रलय) का स्थान महत्त्वपूर्ण है । इन पञ्चलक्षणों में सर्ग एवं प्रतिसर्ग के प्रकाश में सरस्वती देवी की उत्पत्ति का विवेचन करना अधिक उपयुक्त होगा। सरस्वती की उत्पत्ति का वर्णन प्रमुख रूप से ब्रह्मवैवर्त्त, मत्स्य, पद्य, वायु तथा ब्रह्माण्ड पुराणों में मिलता है ।
१. ब्रह्मवैवर्तपुराणः इस पुराण में सरस्वती की उत्पत्ति-विषयक सामग्री यत्र-तत्र कई स्थलों पर पाई जाती है । इस पुराण के अध्याय ३ (ब्रह्मखण्ड) में पौराणिक देवियों के त्रिक (सरस्वती, महालक्ष्मी तथा दुर्गा) की उत्पत्ति का विवेचन करते हुए सरस्वती की उत्पत्ति परमात्मा के मुख से बताई गई है।
ब्रह्मवैवर्तपुराण के एक अन्य स्थल पर सरस्वती की उत्पत्ति भगवान् श्रीकृष्ण के मुख से बताई गई है और वह उनकी शक्तिस्वरूपा हैं। एक और स्थल पर इसी पुराण में सरस्वती की उत्पत्ति का विशद् वर्णन पाया जाता है । यहाँ सांख्य-सिद्धान्त के प्रकाश में उत्पत्ति-प्रक्रिया का सुन्दर विवेचन हुआ है । इस सिद्धान्त के अनुसार, सर्वप्रथम आत्मा तथा उसकी शक्ति मूलप्रकृति का विवेचन किया गया है । आदि काल में आत्मा निष्क्रिय एवं तटस्थ था, परन्तु कालान्तर में उसे सर्जनेच्छा उत्पन्न हुई, फलतः उसने स्त्री एवं पुरुष का रूप धारण किया। उसका यह स्त्री-रूप प्रकृति कहा जाता है । यह प्रकृति-रूप भी श्रीकृष्ण के इच्छानुसार दुर्गा, राधा, लक्ष्मी, सरस्वती
१. द्र० ब्रह्मवै० पु० २३१.१-२३३.७५; विष्णुपु० ६.३.१-७०, १०.४; वायुपु०
१००.१३२,१०२.१३५; मार्क० पु० ४६.१-४४; कूर्मपु० २.४५ । ४.४६-६५;
गरुडपु० १.२१५.४-२१७.१७; ब्रह्माण्डपु० ३.१.१.१२८-३.११३ २. ब्रह्मवै० १.३.५४-५७ ३. उपरिवत्, २.४.१२