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संस्कृत - साहित्य में सरस्वती की कतिपय झाँकियाँ
है, जिससे होकर कभी सरस्वती कच्छ की खाड़ी में गिरा करती थी।
सरसूति का पेट पृथिवी की उथल-पुथल के कारण पर्याप्त उठ आया है । ग्रीष्म काल में यह सूखी रहती है । वर्षा काल में अत्यन्त तीव्र गति से बहती है और इस का जल दोनों ओर दूर-दूर तक फैल जाता है ।" लोक-गीतों (फ़ाकलोर्स) तथा जन- विश्वासों (जनरल विलोपस आव् द पीपुल ) में इसे वैदिक सरस्वती होने की पूरीपूरी मान्यता मिल चुकी है । ३२
पुराणों में सारस्वत लोगों का वर्णन मिलता है । वे लोग भारत के पश्चिमी भाग में सरस्वती के किनारे रहा करते थे, अत एव 'सारस्वत' कहलाते । अब भी वे अधिकतर भारत के पश्चिमी भाग में ही मिलते हैं तथा जाति से ब्राह्मण होते हैं । उन्होंने अपने विशेष ज्ञापन के लिए कभी सरस्वती के किनारे एक देश बसा रक्खा था, जो 'सारस्वत देश' कहलाता था । वे सरस्वती को अपनी 'माता' के समान मानते थे । फलतः उसकी कृपा से इनमें से बहुत से ऋषि-पद को प्राप्त हुए ।
महाभारत में सारस्वत के विषय में एक विचित्र कथा आती है । यहाँ सारस्वत को मानवीकृत सरस्वती का पुत्र एवं ऋषि बताया गया है । एक समय १२ वर्ष का घोर दुर्भिक्ष पड़ा । जीविका के साधनों के अभाव के कारण ब्राह्मणों में वेदाध्ययन की रुचि जाती रही । फलतः संपूर्ण वैदिक ज्ञान समाप्त हो गया । सरस्वती की कृपा से केवल सारस्वत ने ही इस आदि ज्ञान को सुरक्षित रखा । दुर्भिक्ष के अन्त होने पर इसी सारस्वत ने उस ज्ञान को पुनः प्रसारित किया। यह 'सारस्वत' सारस्वत लोगों के पूर्वज जान पड़ते हैं । दुर्भिक्ष से हमें सरस्वती के सूख जाने की सूचना मिलती है, जिसका सम्बन्ध 'विनशन' से जोड़ना अधिक युक्तियुक्त प्रतीत होता है ।
ऋग्वेद के एक अन्य मंत्र में सरस्वती को 'पंच जाता वर्धयन्ती' कहा गया है । तात्पर्य यह है कि वह पाँच जातियों का संवर्धन करती है । इन पाँच जातियों
(१२),
२६. तु० रे चौधुरी, एच.सी., 'दि सरस्वती', साइंस एण्ड कल्चर, ८ न० १-१२, पृ० ४६८; एन. एन. गोडबोले, पूर्वोद्धृत ग्रंथ, पृ० १६ ३०. वही पृ० २
३१. रे चौधुरी, एच. सी., पूर्वोद्धृत ग्रंथ, पृ० ४६८
३२. सर ओरेल स्टाइन, पूर्वोद्धृत ग्रंथ, पृ० १३७ आगे
३३. तु० शल्यपर्वन ५२.२ - ५१; शांतिपर्वन, १५६.३८ आगे
३४. तु० ब्रह्माण्डपुराण, २.१६.६२; मत्स्यपुराण, ११४.५० एच० एच० विल्सन, द विष्णुपुराण ( कलकत्ता, १९६१), भूमिका भाग, पृ० ५४-५५ ३५. ऋ० ६.६१-१२