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संस्कृत-साहित्य में सरस्वती की कतिपय झाँकियाँ
है । अस्तु, नदियों के विषय में भी यही बात कही जा सकती है । पुराणों में नाना प्रकार की नदियों का वर्णन स्थान-स्थान पर स्वाभाविक रूप से किया गया है । उनमें भी सरस्वती-विषयक विचार बड़े ही संयत रूप से प्रस्तुत किये गये है। उसके उत्पत्तिविषयक' प्रश्न को मोटे रूप से दो श्रेणियों में विभक्त किया जा सकता है :
(१) धार्मिक,
(२) भौतिक । (अ) धार्मिक उत्पत्ति:
धार्मिक विश्वासों के अनुसार सरस्वती पहले देवी थी। तत्पश्चात् कई कारणों से उसे नदी होना पड़ा। उन प्रमुख कारणों का धार्मिक विवेचन निम्नलिखित है :
(१) ब्रह्मवैवर्तपुराण के अनुसार सरस्वती हरि-पत्नी है । हरि की-सरस्वती, लक्ष्मी एवं गङ्गा तीन पत्नियाँ थीं तथा इन तीनों का निवास हरि के साथ स्वर्ग में था। एक बार गङ्गा ने सोत्कण्ठित दृष्टि से हरि को बारम्बार देखा । हरि उसके अभिप्राय को जानकर हँस पड़े । हरि का यह व्यवहार सरस्वती को नहीं भाया । फलतः क्रोध के आवेश में आकर उसने हरि के गङ्गा के प्रति प्रेमाधिक्य की भर्त्सना की। क्रोधाभिभूत सरस्वती की यह दशा देखकर हरि-सरस्वती, गङ्गा एवं लक्ष्मी तीनों को भीतर कक्ष में ही छोड़कर स्वयं बाहर निकल आये । लक्ष्मी ने अपने कोमल वचनों द्वारा सरस्वती को शान्त करने का अनेकधा प्रयत्न किया, पर वह विफल रही। सरस्वती ने उलटे ही लक्ष्मी को 'वृक्षारूपा' एवं 'सरिद्रूपा' सोने का शाप दे दिया । गङ्गा को जब यह ज्ञात हुआ, तो उसने लक्ष्मी को सान्त्वना दी और दिये गये शाप की प्रतिक्रिया करती हुई बोली कि “सरस्वती स्वयं ही नदी होकर पृथ्वी-लोक पर चली जाय, जहाँ पापात्मा बसते हैं।" इस प्रकार के शाप के प्रतिकार में गङ्गा भी सरस्वती द्वारा तत्सदृश शाप से शप्त हुई।
जब शाप के दान-प्रतिदान की प्रक्रिया चल ही रही थी कि इसी बीच हरि अन्दर प्रविष्ट हुए तथा सारी घटना को जो घट चुकी थी, उन्होंने सुना, पर अब वह कर ही क्या सकते थे। उन्होंने दुःख प्रकट किया और बोले कि "हे भारति (सर१. नदी से भिन्न देव्युत्पत्ति विषयक प्रश्न के लिये तु० ब्रह्मवैवर्तपुराण,
१।३।५४-५७, २।१।१ आगे, ४।१२ आगे; मत्स्यपुराण, ३।२-८, ३०-३२, १७१।२०-२१, ३२-३३; पद्मपुराण, ५॥३७।७९-८०; वायुपुराण, ६७१।८७, २३।३७-३८; ब्रह्माण्डपुराण, ४।४०५ आगे; आचार्य बद्रीनाथ शुक्ल, मार्कण्डेय पुराणः एक अध्ययन (वाराणसी, १९६१), पृ० ६४-६५; टी. ए. गोपीनाथ राव, एलिमेण्ट्स ऑफ द हिन्दू आइकोनेग्रेफी, १-२ (मद्रास,
१६१४), पृ० ३३५-३३६ ।। २. ब्रह्मवैवर्तपुराण, २।६।१७-४०