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सरस्वती का पौराणिक नदी - रूप
है, अपितु उसका और भी माहात्म्य वर्णित है । यहाँ सरस्वती को 'कामगा' कहा गया है । वह मेघों में 'जल-सर्जन' करती है तथा सभी जल 'सरस्वती' नाम से व्यवहृत हैं । ' उपर्युक्त पौराणिक वचन से सरस्वती का 'दिव्यत्व' सहज सिद्ध है । यही नहीं, बल्कि उसका दिव्यत्व यहाँ पूर्णरूप से निखर चुका है । सरस्वती के 'नदीत्व' की कल्पना का एक अन्य वैचित्र्य, उसके वैदिक रीति की कल्पना से भिन्नता में है । यहाँ सरस्वती नदी 'सरस्वती देवी' का प्रारूप है । वह प्रारम्भ से ही 'नदी- देवता' रही है, न कि तन्नामक किसी देवी से अधिष्ठित । इस कथन की पुष्टि मूर्तिविद्या - लब्ध प्रमाण द्वारा की जा सकती है । मूर्ति-विद्या के क्षेत्र में सरस्वती के हाथ में प्रायः 'कमण्डलु ' दिखाया गया है । यह पात्र रिक्त नहीं है, बल्कि जल- पूरित है । जल भी साधारण नहीं, बल्कि 'दिव्य' है । यहाँ सरस्वती प्रथमतः देवी है, तदनन्तर उसके हाथ में कमण्डलुस्थ जल । यह प्रत्यक्ष प्रमाण प्रकारान्तर से सरस्वती को 'नदी- देवता' घोषित करता है और जल उसके दिव्यत्व एवं प्रारम्भिक जल-सम्बन्ध को भी ।" पुराणों के अनुसार सरस्वती को मुख्यतः दो रूपों में देखा जा सकता है :
(१) ज्ञान एवं वक्तृत्व की देवी,
(२) नदी अथवा नदी- देवता ।
प्रकृत निबन्ध में सरस्वती के पौराणिक नदी- देवता-रूप का विवेचन निम्न शीर्षकों के आधार पर किया गया है :
(१) सरस्वती की पौराणिक उत्पत्ति,
(२) सरस्वती की पौराणिक पवित्रता,
(३) सरस्वती के कतिपय पौराणिक विशेषण |
१. सरस्वती की पौराणिक उत्पत्तिः
पुराणों का विषय वस्तुतः बड़ा विशाल एवं विस्तृत है । यही कारण है कि पुराणों की संख्या भी अगणित है । जीवन का कोई भी स्वारस्य इनसे अछूता नहीं रहा
१. वामनपुराण, ४०.१४
" त्वमेव कामगा देवी मेघेषु सुजसे पयः । सर्वास्त्वापस्त्वमेवेति त्वत्तो वयं वहामहे "
२. द्र० सरस्वत्युत्पत्ति-विषयक विचार, पृ० ३४-३६
३. आनन्द स्वरूप गुप्त, पूर्वोद्धृत ग्रन्थ, पृ० ६ε ४. वही, पृ० ६६-७०
५. कमण्डलु-जल एवं उसके दिव्यत्व के लिए तु० मुहम्मद इसराइल खाँ, 'पुराणों में सरस्वती की प्रतिमा', प्राच्य प्रज्ञा, वर्ष २ अङ्ग १ (संस्कृत विभाग, अलीगढ मुस्लिम विश्वविद्यालय, १९६९), पृ०६१-६२
६. आनन्द स्वरूप, पूर्वोद्धृत ग्रन्थ, पृ० ६९-७०