Book Title: Sanskrit Sahitya Me Sarasvati Ki Katipay Zankiya
Author(s): Muhammad Israil Khan
Publisher: Crisent Publishing House

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Page 31
________________ वाणी के चतुर्विध रूप १३ ३९ ** होती है । इसी प्रकार वाणी ( वाक् ) के जो चार पद बताये गये हैं, वे अन्ततोगत्वा एक हैं । पृथिवी पर जो वाणी बोली जाती है, उसका नाम वैखरी है, परन्तु सृष्टि के आदि में यह अस्तित्व में नहीं थी । केवल 'परा' थी और यह चेतनास्वरूपा मानी गयी है । यह ब्रह्ममय है, अत एव इसका साक्षात्कार नहीं किया जा सकता । यह एक परम शक्तिस्वरूप है । यह इच्छा, ज्ञान तथा कार्य की स्वामिनी है । 'परा' इन शक्तियों की अतिशायिनी है तथा इनके सध्श भी है । इस सादृश्य का अङ्क ुर स्वतः वेदों में उपलब्ध है । 'तिस्रः सरस्वती. " से भारती, सरस्वती तथा इडा का सामञ्जस्य प्रस्तुत किया गया है और इनसे अनन्यापेक्ष्य की भावना से पश्यन्ती ( भारती), मध्यमा (सरस्वती) तथा वैखरी ( इडा ) नामक वाणियों का तादात्म्य प्रस्तुत किया गया है । ऋग्वेद में भी इस सामञ्जस्य का बीज मिल जाता है । यहाँ एक स्थल पर इडा, सरस्वती तथा भारती को 'अग्निमूर्ति' कहा गया है। अग्नि पृथिवी पर सूर्य का प्रतिनिधित्व करता है और यही सूर्य दिवि में आदित्य कहलाता है । भारती द्युलोक स्थायिनी है और इस प्रकार से यह आदित्य तथा मरुतों से ( मरुत्सु भारती ) " सम्बद्ध है । मरुत् मध्यस्थायी हैं। उनसे सम्बद्ध होने के कारण भारती भी मध्यमस्थाना हुई । हम ने पहले बताया है कि सरस्वती मध्यमा वाक् होने के कारण मध्यमस्थाना है । दोनों का स्थान एक होने तथा चरित्र की लगभग समानता के कारण दोनों एक हैं । दूसरी ओर तीनों ही पृथिवी स्थायिनी अग्नि- मूर्तियों से तादात्म्य रखती हैं, " अत एव तीनों एक हैं। तीनों का तादात्म्य एक अन्य उदाहरण से भली-भाँति जाना सकता है । श्री अरविन्द ने इडा, सरस्वती तथा भारती को दृष्टि, श्रुति तथा सत्यचेतना का विस्तार माना है । वस्तुतः यह कल्पना ज्ञान-परक है, अत एव तीनों मूर्तियों को अनन्यापेक्ष्य की भावना से एक ही मानना चाहिए। एक अन्य ऋग्वैदिक स्थल पर सरस्वती को 'त्रिषधस्था" कहा गया है । भाष्यकारों ने इसका अर्थ पृथिवी, अन्तरिक्ष तथा द्युलोक को प्रतिनिधित्व करने वाली किया है। जैसा कि हम ने पहले बताया है कि ये तीनों देवियाँ भू, भुवः तथा स्वः का प्रतिनिधित्व करती हैं, तद्वत् भाव 'त्रिषधस्था' विशेषण द्वारा वाग्रूप त्रिपदा गायत्री की तुलना तथा समानता से निकाला जा सकता है। ४५ अन्तिम तथ्य का आभासवादियों का कथन है कि परम शक्ति शाली एवं सर्वव्यापी आत्मन् है । वह अत्यन्त सूक्ष्म है । सम्पूर्ण संसार की उत्पत्ति, स्थिति, पालन तथा संहार का एकमात्र कारण वही है । आत्मन् अन्तिम तथ्य है । यह संसार उस प्रत्यक्षरूप है । इसे द्रव्य तथा वाणी ( वाचक तथा वाच्य ) रूप में विभक्त किया गया है । दाणी इस संसार के स्थूल घटना का स्वरूपमात्र नहीं है, शब्द केवल प्रतीक रूप में प्रयुक्त होते हैं । 'परा' इस अन्तिम तथ्य का नाम है और यह अत्यन्त सूक्ष्म है । इस परा के ठोस रूप का नाम 'वैखरी' है, जिसे मनुष्य बोलते तथा समझते हैं, परन्तु वैखरी तक आते-आते 'परा' की दो दशाएँ और होती हैं, जिन्हें पश्यन्ती तथा मध्यमा कहते हैं । 'पश्यन्ती' ठोस वाणी का प्रथम सोपान है । इसमें वाणी का ठोस रूप धुंधला

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