________________
वाणी के चतुर्विध-रूप
अत एव इसके नाम भी भिन्न-भिन्न हैं । भू, भुवः तथा स्वः की देवी होने के कारण इसका नाम इडा, सरस्वती तथा भारती है तथा ये तीनों पृथिवी, अन्तरिक्ष तथा धुलोक की वाणी-स्वरूप हैं । इन्हीं का एक अन्य नाम पश्यन्ती, मध्यमा तथा वैखरी है । 'पश्यन्ती' भारती, 'मध्यमा' सरस्वती तथा 'वैखरी' इडा का प्रतिनिधित्व करती है। यह वाणी का एक बाह्य रूप है । इसकी यह व्याख्या वैदिक प्रकृतिपरक व्याख्या के सर्वथा अनुकूल है। मनोवैज्ञानिक व्याख्या के आधार पर इसी वाणी की तीन अवस्थाएँ हैं। प्रस्फुटित वाणी एक ही नादात्मिका वाक् के भिन्न-भिन्न रूपों को धारण कर मनुष्य के आभास अथवा ज्ञान-पथ में आने के कारण भी पश्यन्ती, मध्यमा तथा वैखरी के नाम से व्यवहृत होती है । 'नाद' अत्यन्त सूक्ष्म होता है । सूक्ष्मवशात् इसकी विवक्षा नहीं की जा सकती । यह वाणी का द्वितीय चरण है। इसकी अवस्था हृदय में आगमनमात्र होती है और केवल योगी लोग ही इसका दर्शन कर सकते हैं । वाणी के इसी रूप का नाम पश्यन्ती हैं । जब वाणी हृदय में आभासमात्र दिखाती है, तब इसे 'मध्यमा'-अक्षरशः हृदय-मध्य में उदित होने के कारण 'मध्यमा' कहा जाता है । जब वाणी व्यक्त हो जाती है, अर्थात् जब इसमें व्यक्तता की तीव्रता आ जाती हैं तथा तालु, ओष्ट आदि माध्यमों से उच्चरित होकर मुख से बाहर निकलती है, तब इसे 'वैखरी' कहा जाता है ।३२
३. वाणी के चार चरण और उनका दार्शनिक विवेचन :
ऊपर हम ने वाणी के तीन चरण अथवा रूप का विवेचन किया है। परमार्थतः एक ही वाणी को भारती, सरस्वती तथा इडा अथवा पश्यन्ती, मध्यमा तथा वैखरी के रूप में बताया गया है और वे अन्ततोगत्वा एक हैं । कुछ स्थलों पर वाणी के 'चार रूप' होने का सङ्कत मिलता है । हम ने पहले बताया है कि इस विषय में विद्वानों में मतैक्य नहीं है । ऋग्वेद में कुछ ऐसे स्थल हैं, जहाँ वाणी के 'चार रूप' होने का संकेत है तथा इसे केवल सङ्केतमात्र ही नहीं माना जा सकता है । ऋग्वैदिक एक मन्त्र में स्पष्ट रूप से वाणी के 'चार रूप' बताये गये हैं।
चत्वारि वाक् परिमिता पदानि तानि विदुर्ब्राह्मणा ये मनीषिणः । गुहा त्रीणि निहिता नेङ्गयन्ति तुरीयं वाचं मनुष्या वदन्ति ॥
ऋ० १.१६४.४५ वाक् के चार पद हैं, वे गूढ हैं और अंधकार में हैं । उसे मनीषिगण ही जान सकते हैं । धरती के मनुष्य वाक् के तुरीय अर्थात् चतुर्थ पद को ही समझ सकते हैं तथा बोल सकते हैं । अन्यत्र 'चत्वारि शृङ्गा३३ से इसी ओर सङ्केत जान पड़ता है, अत एव जो लोग वाणी के केवल तीन भेद को स्वीकार कर चतुर्थ का खण्डन करते हैं, उनका मत सर्वथा निर्दोष नहीं कहा जा सकता। फलत. पश्यन्ती, मध्यमा तथा वैखरी के अतिरिक्त वाणी का एक अन्य भेद भी है, जिसे 'परा' की संज्ञा दी जाती है । ऋग्वेद के प्रसङ्ग १.१६४.४५ में 'चत्वारि' पद की व्याख्या करते समय सायणाचार्य ने लिखा हैं कि "परा पश्यन्ती मध्यमा वैखरीति चत्वारीति । एकैव नादात्मिका वाक् मूलाधारा