Book Title: Sanskrit Sahitya Me Sarasvati Ki Katipay Zankiya
Author(s): Muhammad Israil Khan
Publisher: Crisent Publishing House

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Page 37
________________ सरस्वती के कतिपय ऋग्वैदिक विशेषणों की विवेचना १ सतत् विद्यमान है कि वह अपनी विशालता के कारण समुद्र- तुलना में क्षम रही हो । एक अन्य मंत्र में, पर्वत से उतर कर, उसे समुद्रपर्यंत गमन करती हुई कहा गया है । यहाँ वह नितांत पवित्र है और धनों की दात्री है । यह पर्वत शब्द अधिक मार्मिक है, जब कि वैदिक पद्धति में 'मेघ' रूप में अपना एक विशिष्ट अभिप्राय रखता है । सरस्वती को अंतरिक्ष- स्थानीय भी कहा गया है और इस रूप में वह 'माध्यमिका वाक्' ठहरती है, जिसकी प्रकृति-परक व्याख्या मेघ-ध्वनि अथवा विद्युत्ध्वनि से की गई है, परन्तु आश्चर्यजनक समन्वय यहाँ भी दीख पड़ता है, जब उसकी कल्पना वाक् ' के साथ-साथ नदी के रूप में भी की गई है। वह बादलों के सारभूत जलप्रवाहों को लेकर मैदानों तक आती है तथा अगणित स्रोतों, नदियों तथा नदों को जल-दान करती है, अत एव इस विश्लेषण के आधार पर भी, उसे सिंधुमाता = नदियों की माता अथवा जलों की माता कहने में आपत्ति नहीं प्रतीत होती है । यह विश्लेषण और कतिपय अन्य, जिनमें समान ही भाव प्रलुप्त है, हमारा ध्यान अनायास ही भारत की उस सामाजिक स्थिति की ओर आकृष्ट करते हैं, जिसमें माता की महती प्रतिष्ठा थी। समाज में मातृ-प्रधान परिवार की प्रथा प्रचलित थी और माँ ही परिवार की मुखिया हुआ करती थी। ऐसा जान पड़ता है कि वैदिक आर्य, जिन्होंने अपना भरण-पोषण नदी की छत्र-छाया में पाया था, उसे उसी प्रकार आदर भाव देते थे, जैसे कोई माँ अपने बहुत से बच्चों पर समान दृष्टि रखती है । उनका नित्य साहचर्य माँ-पुत्रवत् था । उससे प्राप्त होनेवाली अनेक सुविधाओं के कारण, अपनी सामाजिक प्रवृत्ति (मातृप्रधान परिवार की प्रथा ) का आरोप, अपनी पड़ोसिनी निरंतर प्रवाहिनी नदी पर किया । एक मंत्र में इस बात का स्पष्ट सङ्केत मिलता है कि यह नदी पाँच जातियों का संवर्द्धन करती है । प्रसङ्ग 'पञ्च जाता वर्धयन्ती' करके आया है, जिसकी व्याख्या सायण ने निम्न प्रकार की है : पञ्च जाता जातानि निषादपञ्चमांश्चतुरो वर्णान् गंधर्वादीन् वा वर्धयन्ती अभिवृद्धान् कुर्वती । सरस्वती एक महती उदारवती माता के रूप में सतत् प्रवहमान थी । वह अपने समीप में बसने वाली जातियों का सम्यक् प्रकार पालन किया करती थी । अनेक जातियों में पाँच जातियों का स्थान बड़े महत्त्व का था । ये पाँच जातियाँ या तो पाँचों वर्णों के रूप में ली जा सकती हैं या इसमें भरत, कुरु, पूरु, पारावतस् तथा पाञ्चाल लोगों को सम्मिलित किया जा सकता है । २. सप्तस्वसा इस शब्द का प्रयोग सरस्वती के लिए ऋग्वेद में केवल एक बार हुआ है । ८. ऋ० ७.६५.२. ६. वही, ६६.१.१२ १०. वही, ६.६१.१०

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